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00: 08६6 शा? 50०१, (0.0६5६, 587६ ६0०2 (8४) 50एऐंदश्ाा5छ एधा€६ंदा। /ण/ट29 20075 079 ए [ए९0 5६४5 ६६ ४8 708. 80880५/६98'5 0 20६८ छा5 £ । शअएा5एप्त८ भाषा-शास्त्र प्रवेशिका भाषा-शास्त्र प्रवेशिका डा० मोतीलाल गुप्त अध्यक्ष, हिन्दी विभाग जोधप्र विश्वविद्यालय, जोधपुर राजस्थान प्रकाशन जय्यप्छुर-ब्ट [ चार रुपया पक पपुस+नप्पआएककदुफलकइ:बजफकराानलड़ाक “ना 9+,न शाजहस्थान अक्रागत, दैदकनन+शम+न्‍मलः-ाठ>+-रक--की-न कतार प ८-८ 5 माह ०० शीका'"्मुयाममम्णाा छः जज | /] |; कट 5० |] न्ज्प क्या ५ रे | उमकपणणअयान-तन०-ममरएन पक रकम. 324 ०४ मद उके. बी. सलााकन च्ां आकर... के जया है आआओ ८०5 खऋझातजस् कक अर 4 इज्ल ते फ # कक एक. थी फ्. कण ५ या म्की का बंध कण न हर न्म्ध क्त क्र _ससिकलूबत+-मर.. 8 ्ी ् 9 इअर रातकमल प्रिन्दस, _मकफिस्म७-कपस आप « समकाक्ंएकपला करत ८ पड तुनमपरि०न्‍फन्‍नजएफन, घद २।४। ० “६5: राव महा»... दस चर नरक खत अं आओ बा सका भाषा-शास्त्र प्रवेदशिका आर हिन्दी-माषा निवेदन १ उच्च कक्षा के प्रत्येक विद्यार्थी के लिए 'भाषा' के साथ उसके 'शास्त्र' का किचित ज्ञान आवश्यक है । हम 'भाषा' का ज्ञान नहीं करते, साहित्य पर जा पहुँचते हैं । परिणाम यह होता है कि 'साहित्य' का भी सच्चा आनन्द नहीं, प्राप्त कर सकते, भाषा में गति तो कु ठित होती ही है । बसे भी भाषा की सामान्य वातें जानना बहुत ही श्रावश्यक और उपयोगी होता है । इसी वात को ध्यान में रखते हुए आजकल के विश्वविद्यालयीय पाख्य-क्रम में 'भाषा-शास्त्र' भी रखा जाता है । पहले तो भाषा-विज्ञान अ्रथवा भाषा-शास्त्र का प्रशन-पत्र केवल एम. ए. कक्षाओ्रों में ही रखा जाता था, परन्तु अब डिग्री-कक्षाओ्रों में भी इस विपय को रखने की श्रावश्यकता समझी गई है । है डिग्री कक्षाश्रों में २.३ वर्ष पढ़ने के उपरान्त बुद्धि कुछ परिपक्व हो जाती है और भाषा-जञान की क्षमता भी बढ़ जाती है, अ्रतः स्तातकोत्तर कक्षाओं में जब भाषा-विज्ञान पढ़ने का उपक्रम होता है तो, सामान्यतः विद्यार्थी को कठिनाई नही होनी चाहिए । परस्तु, कई कारणों से, भाषा-विज्ञान का विषय त्तीरस समझा जाता है, और इस प्रश्न-पत्र को श्रन्य प्रश्न-पत्रों की अपेक्षा कठिन बताया जाता है। अ्रध्यापक, यथासंभव चेष्टा करता है कि विपय को ग्राह्म वनाए' और कठिनाई के भूत” को विलुप्त कर दें, किन्तु जो धारणा चल निकलती है उसे अन्यथा करना कुछ सरल नहीं होता । भाषा-विज्ञान के भ्रध्यापक को भी 'शुष्क', 'नीरस', 'हृदयहीन' न जाने कितनी उपाधियां दे दी जाती हैं । डा० धीरेर् वर्मा भी इन विशेषणों से नहीं वच सके, परस्तु मुझे व्यक्तिगत अनुभव के श्राधार पर मालूम है कि भाषा-विज्ञान का शिक्षक इन विशेषणों के, प्रायः, प्रतिकूल होता है । वैसे भी विपय काफी सरस है, परन्तु 'भ्रान्ति' का निराकरण कैसे हो । अ्रव कुछ समय से यह विपय डिग्री-कक्षाओं में भी प्रस्तावित किया जाने लगा है, और स्पप्ट है कि स्वातकोत्तर-बक्षाओ्रों में पढ़ने वाले भग्नजों को श्रव डिग्री के अ्रनुजों पर भी जमता चाहिए । डिग्री-कक्षा के विद्यार्थी इस विपय से घबराते हैं, कभी-कभी तो ग्रात कित होते हैं । उन्ही बच्चों के लाभार्थ यह प्रयास किया जा रहा है । (| ख्र॒) इस छोटी सी पुस्तक में मैंने इस वात की चेप्टा की हैँ कि भाषा और विषय-प्रतिपादन दोनों मे सरलता रखी जाए, पर आवश्यक वातों का ज्ञान अच्छे रूप में हो जाए । मेरे इस प्रयास से दो प्रकार के लाभों की संभावना है--पहला तो यह कि डिग्री-कक्षा के विद्यार्थी विषय को अच्छी तरह समझ सके । 'रटने से 'समभना अधिक उपयोगी होता है और मेरा यह प्रयास रहा है कि रटे नही, समभे । इस उहे श्य की पूर्ति हेतु श्राधुनिकतम जिक्षा-सावनों का भश्राश्य लिया गया है| दूसरा लाभ यह होगा कि जो विद्यार्थी एम. ए. कक्षाओं में इस विषय को पढें गे उनकी विपय-सवधी पृष्ठ-भूमि उपयुक्त कोटि की होगी और विपय को कुछ विस्तार और गहराई के साथ पढने में सहायता मिलेगी । विद्याथियों के साथ हमारे प्रिय ग्रध्यापक बंधुओं को भी थोट़ी आसानी होगी--उन्हें विद्यार्थियों के रूप में जो अध्येता मिलेगे उनका समुचित विकास किया जा सकेगा । ०/३ इस पुस्तक में मैने अध्ययन और अ्रध्यापत दोनों हष्टि-विन्दुशों पर ध्यान रखा हैं| यदि मैं यह कहू कि इस पुस्तक मात्र के पढ़ने से वांछनीय फल की प्राप्ति होगी तो, जायद, उचित न होगा । पुस्तक के साथ-साथ कक्षा में किया गया कार्य भी द्रावश्यक है और अ्रध्यापक का व्यक्तित्व तों पग-पग पर अपेक्षित हैं। वसे विषय को सरलत्तम रूप में रखने की चेष्ठा की गई है श्रौर इस वात का भी ध्यान रसा है कि भाषा-विज्ञान का जो 'काठित्य' विद्यार्थियों के मस्तिप्क में स्थात पा गया है, वह दर हो जाए। अध्यापक का तो सववंदा ही यह प्रयत्न होता है कि विद्याथियों का कल्याण हो भर मेने अपने गत ३६ वर्षो के अध्यापव-काल मे इस वात को अच्छी तरह समभने की कोशिश की है। यदि मेरे इस प्रयास के फलस्वरूप हमारे प्रिय विद्यार्थी इंस विपय में भी कुछ रस लेने लगेगे तो में गपना परिश्रम सफल समभूगा । --मोतीलाल गुप्त सल्नुक्रस्त ०० क्र. सें. विषय पेज २, भाषा १-१० २, भाषा की उत्पत्ति ११-१६ ३. भाषा शास्त्र और उसका अ्रध्ययनत २०-२६ ४. भाषाओं का वर्गीकरण ३०-३ ६ ५. भारतीय आये भाषायें (प्राचीन और मध्यकालीन ) ४०-४६ ६. आधुनिक भारतीय आये भाषाएं ५०-६४ ७, हिन्दी विभापाये या ग्रामीण बोलियाँ ६५-७८ ८, हिन्दी का विकास ७९-८६ ६, हिन्दी का शब्द-समुदाय ८७-६४ १०. हिन्दी रचना ६५-१०५ ११. देवनागरी लिपि १०६-११२ सावा 3404 न मल 344 3 न लक हक. १/१ कल्पना कीजिए आज से छातों वर्ष पहले की, जब पृथ्वी पर कोई एक ही प्रारी रहा होगा । हम यह दो नहीं कह सकते कि वह हमारी ही आहृठि कय रहा हो, अथवा अन्य किसी ज्लाकृति का, पर यह माव लीजिए कि उसके मुख भ्ादि अवयब रहे होंगे, बौर उसमें यह शक्ति भी रही होगी कि मृख् से कुछ ध्वनिर्धा कर सके । उसने क्या और किस प्रकार की घ्वनियां की होंगी, यह भी कैबल अनुमाव का विषय है, १र ऐता अवध्य प्रतीत होता है कि उस शब्द में, या कहिए घ्वनियों में, उस प्राी की अत्मामिव्यक्ति रहो होगी । उदर-पू्ति, मौसम से बचाव, सुख-दुख का प्रकाशन आदि हीं उत घ्वनियों का ध्वेब रहा होगा । पर वह एक्राकी क्ितती चुदन का अनुरव करता होगा; जोर उसकी कामना रही होगी कि वह कम्र से कम एक साथी और प्राप्त करे। पुराती कहानियों, पुराणों, धर्म-म्रन्थों ओर दन्त-कथाओं ते मालुम होता है कि एक से दो हो गए । प्राणी के जीवन में बड़ा परिवर्तन आया, उसे एक साथी मिला । वे दोनों प्यार से रह सकते थे, झगह़ सकते ये, साथ-सा भोजन की खोज कर सकते थे, बचाव कर सकते थे और इस प्रकार के । परन्तु $ बल | हे षे तन कार्य | इत सबके करने में पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता है न्तु यह सहयोग कंसे प्राप्त हो सकता है, जब तक एक की बात दूसरा न जाने | बठएव इस वात की आवश्यकता हुई कि एक के मत की बात दूसरा जाने । नि छल नर है. न्‍ै १/२ मेरी वात दुधरा जान जाएं, था मैं दूसरे की वात जान जाऊ--यहीं पे वित्वार-विनिमय का सूत्रणत होता है: विचाराभिव्यक्ति की बात सामने दाती हैं। निःसंदेह, मदर में विचार उठने पर एक ने दूसरे पर प्रकानित करने के लिए किसी युक्ति की खोज की होगी । इसके लिए व्यक्ति के पास सामान्यतः दो साधन हैं-- (१) भरीर ओर झ्रीर के बवयव, (२) बाह्य उपादान । इनके द्वारा ही वह इस बात की चेप्दा कर सकता है कि उसका विचार दूसरे तक ५हुँच जाए। भगवान ने घरीर में हमें ६: दर कितनकाक, इफपथांग के "यान. गान कमा... मम किट वा कनके का उपयोग वर नक्तते हे | यवा[--- जतने अवयव दिए हैं उनमें पे भी हम (१) हम विविध प्रकार को घ्वनिर्याँ कर सकते हैं। फूक से लेकर व्यक्त ध्वनि तक हमारे काम में आ सकते हैं । हवा को वाहर निकाल कर अथवा भीतर लैजाकर बव्वनियाँ की जा सकती हैं । रत | कर सकते किक] (क) आंखों के इणारे आप सभी जानते हैं; जो वे क्ांखों के इसारे कर सकते हैं । (ख) हाथ, पर, आदि से करिए गए संकेत--- अग्ुुल्ियों से गिनती गिनाएँ, पैर से आगे वढाएँ, गुस्सा दिखाएँ, हाथ से बंठाएं, उठाएं,-तालियों से विविध विचार व्यक्त करें आदि । (ये) मुख को आकृति द्वारा अनेक प्रकार के भाव-प्रसन्नता, क्रोध, आदेश, लज्जा, स्वीक्षत्रि, अस्वीकृति आदि । (घ) भमुजा, छाती, कान, नाक, झिर, वार, और अनेक अवयव विखित्र प्रकार की बातें कहते हैं । ([ २) घरीर के अन्य अवयधों से हम इथारे कर सकते हैँ-- द्न 56 पे से /0४, वाद्य उपादानों की संख्या तो अगशित है-हमें जो कुछ भी मिले, उससे काम लिया जा सकता है। पेड़, पत्थर, पानी, माटे, हुवा, मिट॒टी भादि सभी हमारे काम में बाते रहे हैं, हमारे विचारों को दूसरों तक पहुंचाने में मद्रद करते रहे हैं। और आज के युग में चावरू, हल्दी, युपारी, कचृतर, डिब्ब्री, गुड़, गाय, कोआ, बिल्ली न जाने कित्तने बन्‍्य उपादान हमारी सहायता करते हैं। हम इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि यदि हम वाणीहीन भी हो जाए तो ये बाहरी चीजें, काफी हद तक, विचार विनिमय में, हमारी सहायता कर सकती हैं । आज भी हम इन सबसे सहायता लेते हैं और निरंतर लेते रहेंगे। ये हमारे दिचार-प्रकाशन को सशक्त और सुगम बनाते हैं। १/३ जब हम विचारों के आदान-प्रदान की वातें करते हैं, तो हमारे सामने एक बात स्पष्ट रूप में भाती है । ऊपर जिन साधनों का वर्शान विया गया है वे एक सीमा तक ही हमारी वात दूसरे तक पहुंचा सकते हैं | यदि हम यह कहना चाहें-/कल हम अपने वच्चों को साथ लेकर तांगे द्वारा गोठ में जाएंगे” ती कई कठिनाइयाँ सामने आएगी। बहुत पहले भी मनुप्य के सामने ये कठछिनाइयाँ आई होंगी, और उसने सोचा होगा, क्या करना चाहिए ?' मनुष्य के पास सबसे शक्तिशाली साधन शब्द है और इस “भथब्द को यद्यपि हाथ, पेर आदि के द्वारा मी किया जा सकता है, परन्तु मुख के द्वारा किया गया शब्द मधिक उपयोगी होता है। मुख से निकला हुआ शब्द एक ऐसा संकेत हैं जो दूर तक सुना जा सकता है, जो दूसरे का ध्यान आक्षष्ट करता है; जिसमें सतसे अधिक विविबता है। इन तीनों कारणों से मनुप्य का ध्यान उधर गया होगा और उमने मुख में निकझछी व्वनि्यों का उपयोग किया होगा | ध्वनि की सबसे बड़ी वात यह है कि वह सुताई देती चाहिए, और स्पष्ट होनी चाहिए--बदि ये दोनों बातें नहीं होंगी तो हम बपनी बात कंसे कहेंगे । पर एक वात यह मी हैं कि हम जलूछ न बोले, ऐसा बोलें जिसका अब हो ओर वह बर्य ऐसा हो जिसको दूसरा भी समझ सके | यदि हमने एक भाषा बोली और सामने वालरा इसे नहीं समझता है, तो क्या लाभ होगा । आपने घुनी होगी वह कहानी -- $ काइल गये मगल बन आए, वोलें मधुरी बानी। आवब, भाव कह मर गए, सिरद्वाने रखा 'पानी ॥ पर एक सवाल और उठता हैं-- समी भमापाएं एकसी क्‍यों नहीं होतीं ? इसका उत्तर इतना ही है कि अपनी सुविवा, परिस्थिति और साधनों के अनुसार भाषा का निर्माण घर हम होंगा, और यही क्रम निरंतर चलता रहता है | एक समय रहा होगा जब विविध प्रकार की अव्यवस्वित ध्वनियां रही होंगी परन्तु उनकी व्यवस्था करना आवदध्य क्र हुआ होगा | अतः कई वातें एकत्र हो गई जो भाषा को उसका स्वरूप करती हूँ | (१) मुख से निकले व्वनिश्संकेव जो सुनने वाले दक पहुंच सके | (२) व्यक्त और स्पष्ट घ्वनि संकेत । (३) सार्थक । (४) वर्ग विद्येप में प्रचलित । (५) सुविधा, परिस्थिति और साधन विशेष के अनुरूप । (६) व्यवस्थित तथा विस्लेपणु की क्षमता सहित । हि] सभी उपादान मिल कर एक सष्टि करेंगे तो उसे 'भापा' की संज्ञा दी जा सकेगी । १/४ भाषा का संबंब “भाप घातु से है। माप का अर्थ है बोलना । इनमें वोलना तो होता ही है, पर विशेष प्रकार का | इन सभी बातों का ध्यान रखते हुए विद्वार्दों ने माया की परिमाया देने की चेप्टा की है, जो कुछ इस प्रकार हो सकती है ; माया उच्चरित एवं व्यक्त ध्वनि-संकेतों की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा एक वर्ग के लोग आपस में विचारों का विनिमय करते हैं। यहां १. घ्वनि- संकेत, व्यक्त, ३. व्यवस्था, ४. एक व, ५, उच्चरित--सझी हृष्ट्व्य हैं। इनमें प्राय: वात आजादी हूँ, जिदकी बोर १/३ में संकेत किया गया था | हम ध्वनि- है संकेत करें और यदि वे व्यक्त तथा स्पप्ट न हों तो मापा नहीं होगी । स्पण्ठ और व्यक्त भी हों तो भी व्यवस्था के बिना भापा नहीं बनेगी | व्यवस्था भी हो तो एक्र वर्ग का होना आवश्यक है-अर्थात्‌ दोनों के बीच समझे जाने वाली हो । इसमें ध्वनि-संकेतों का उच्चरित होना मी आवश्यक है, क्योंकि ताली बजाना, पर पटकता आदि भाषा नहीं होते । उच्चारण के अवयवों का उपयोग करते हुए ध्वनि निकालनी होती है! साथ ही हम यह भी स्मरण रखें कि बद्यवि विचारों को प्रकाशित करने के अनेक साधन होते हैं और उन्हें हम सबवंदा काम में लाते हैं, परन्तु मापा नाम से अभिहित साधन उच्चरित होने की अपेक्षा करता है । १/५ एक प्रइन और सामने आता है | क्या लिखा हुआ भापा नहीं होता ? यदि ऐसा द्वो तब तो सारा वाह्मय ही समाप्त हो जाए; यदि ऐसा नहीं तो ऊपर दी गई परिभाषा में इस बात को शामिल न करने का कारण क्या है। बात कुछ इस प्रकार है-मापा के दो रूप होते हैं-- (१) उच्चरित तथा (२) लिखित जब हम “भाषा' की वात करते हैं तो हम अपना ध्यान 'उच्चरित' तक ही सीमित रखते हैं--यही प्राग्म्म में बिचाराभिव्यक्ति का साधन रहा होगा । 'लिखित' साधन तो बहुत समय पश्चात्‌ काम में आने लगा होगा । एक प्रकार से यह एक गोणा साधन है जिसका आश्रय स्थान और समय की दूरी के कारण लेना पड़ता है । अतः भाषा-शास्त्र में 'मापा' पर विचार करते हुए प्रायः 'उच्चरित' भापा को ही ध्यान में रखा जाता है। यह एक महत्वपूर्ण बात है और इसको सवंदा ध्यान में रखना चाहिए । याद करें : (१) भाषा-विचाराभिव्यक्ति का एक साधन है । (२) भाषा में ५ बातें हैं-- १, उच्चरित ४, वर्ग विशेष हेतु २, व्यक्त ५, व्यवस्थित ३, सार्थक (विश्लेपणा के योग्य) (३) भापा-शास्त्र में 'उच्चरित' भाषा पर ही विचार होता है । १/६ अब भाषा” का स्वरूप समझने की चेष्टा करें । स्वरूप में कई बातें आती हैं--भआाकृति किस प्रकार की है ? प्रकृति कैसी है ? किस भोर प्रवृत्ति हैं ? यदि इन तीनों बातों का पता छग जाय तो व्यक्ति, वस्तु अथवा किसी अन्य सत्ता का पूरा पता रूग जाए। भनुष्य का स्वरूप ही लीजिए -- आक्ृति--शरीर के अवयव, रूम्व्राई-मुटाई-ऊचाई, रंग-रूप । प्रकृति--जैसी भी हो--क्षमाशील, क्रोवी, प्रसन्‍वचित्त; खाद्य-पेय पदार्थों में रुचि; गर्मी-सर्दी सहन करने की शक्ति आदि । प्रवत्ति-किस ओर गति है ? क्‍या करता है ? किधर प्रेरित होता है? 'भापा भी एक सजीव व्यक्तित्व है, अतः इसमें इन सभी बातों को हृढा जा सकता है । १/७ १/८ भाषा का स्वरूप आंखों का विषय नहीं हैं, कानों का विषय है । हाथों से उप्तका स्तर्श भी नहीं किया जा सकता परन्तु उसका प्रभाव अनुभव किया जाता है । उसका चलना-फिरना देख नहीं सकते परन्तु वह गतिशील ही नहीं परिवर्तनशील भी है । अतः मापा के स्वरूप का ज्ञान उसकी कुछ विशेषताओं के आधार पर हो सकता है। इन विशेषताओं में से कुछ को तो बताया जा चुका है जसे उसका मुख से उच्चरित होकर रूप धारण करना, कानों के माध्यम से उसके अस्तित्व का पता लगाना, व्यक्त और स्पष्ट होना, व्यवस्थित होना, एक वर्ग से दूसरे वर्ग में स्वहूप बदलरूना, हमारे छिए अत्यन्त उपयोगी होना, न्यू साधनों को अपेक्षा करना आदि । उसके स्वरूप की अन्य बातों का पता तब लगेगा जब हम उप्तकी प्रकृति तथा प्रवृत्ति को जानें। जेसा हम देख चुके है आकार' ही मनुष्य नहीं होता, आकार के अतिरिक्त भर भी कई बातें हूँ--इसी प्रकार भापा की भी कई ओर बातें हैं | स्थुल पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान काफी सीमा तक उसके आकार से हो सकता है, पर स्थृूछता के भभाव में कुछ भन्य बातें ही उसके स्वकूप का निर्देश करती हैं। इसलिए “भाषा! के प्रसंग में उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति को जानना उसके स्वरूप>ज्ञान में अधिक सहायक होगा । भाषा की प्रकृति के बारे में एक बात जानना बहुत आवश्यक है। 'भाषा पागलूपन नहीं होती, व्यवस्थित और सार्थक होती है ।! यह व्यवस्था बौर भर्थ कहां से भाते हैं ? शीघ्र ही उत्तर मिलेगा, 'मत अथवा मस्तिष्क से! । तो वया भाषा “मन में ही स्थित रह जाती है ? तो उत्तर मिलेगा, 'नहीं । उच्चरित होकर प्रत्यक्ष होती है, कानों द्वारा इसका आामास होता है ।!! इन उत्तरों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भाषा के दो भाधार हैं-- (१) मानसिक (२) भौतिक । मानसिक आधार सोचने, व्यवस्थित करने, अवसरानुकूल बनाने आदि में मापा का पोपक होता है, और 'भौतिक' वे घ्वनियाँ हैं जो कान के द्वारा प्रहणा की दर जाती हैं। बिना सोचे बोलना पागलपन है, बिना बोले भाषा बकार है। भाषा के लिए दोनों बातों की आवश्यकता है बोर जब तक ये दोनों वातें नहीं होंगी तब तक विचार-विनिमय संमव नहीं होगा । (भावश्प्रकाशन)->मन मद-३ (अर्थ-प्रहण) 4 | मख कान । । चदणा बल न्न्> ७३०७९ ७ # ७ २ ७ # » की ७ 8 #७+ चने आता ! उच्च स्ति ग्रहीत ा जलन, इसको यों समझिये | वक्ता के मन में कोई वात आई, उसने उसे व्यवस्थित कर मुख द्वारा उच्चरित किया । 'श्रोता' ने कान द्वारा उस ध्वनि को प्रहण किया, बौर श्रोता के मत्त ने इप्टार्थ का प्रहएण छर लिया । विचार-प्रकाणन का एक पक्ष समाप्त हुआ । इससे यह॒ स्पष्ट हो जाता है कि मापा की यह प्रक्षति है कि इन दोनों आधारों के बिना उसका स्वरूप संभव नही । १/८/१ भाषा के सम्बन्ध में दूसरी वात यह हैं कि वह क्विसी को जन्म के साथ नहीं भिरती । उच्चारण के अवयव अवश्य मिलते हैं, जिनसे घ्वनियां सम्मव होती हैं, परन्तु 'भाषा' नही मिलती । मापा का तो अर्जन करना पड़ता है, उसे सोखना पड़ता है । अब दो प्रइन सामने आाए:--- (१) भाषा का अर्जन कहां करते हैं ? (२) भाषा किस प्रकार सीखते हैं ? १/5/१/१ मापा का अज्जेन समाज में होता है। भाषा एक सामाजिक वस्तु है, समाज में ही उसकी प्र।त्प्ठा है समाज में ही उसका विक्रात्त है, समाज ही उसका प्रयोग-उपयोग करता है, समाज ही उसको रूप प्रदान करता हैं। अतः उसको अरजन करने हेतु समाज ही एक मात्र स्थास हैं। पर इस समाज की अपनी सीमाए हैं:--ब्चे के लिए उसके माता- पिता, भाई-बहन आदि ही उसका समाज है; विद्यार्थी के लिए उसका विद्यालय, शिक्षक और सहपाठी समाज है; बहुत से व्यक्तियों के छिए उनके आस-पास के व्यक्ति ही समाज हैं इमका परिणाम यह होता है कि समाज के ही अनुरूप भाषा सोखी जाती है। मैं ब्रजमाषा बोलता था, मेरा पुत्र राजस्थानी बोलने लगा और मेरा पौत्र पंजाबी बोलता है, क्योंकि वह श्रीगगानगर में है । जैसा समाज वैसी भापा। पिदा की मापा पुत्र वोले-- यह आवश्यक नहीं । यदि मेरे चार पुत्र होते, बौर वे चार प्रन्‍नन है कि उसकी गति किस प्रकार की होती है। कोई कहते हैं माषा चक्रवत चलती है, ठ (2) ड़ आः अ' से लेकर आ', 'इ', “ई', “उ' पर होती हुई पुनः 'अ' पर बाजाती है। इसी को कुछ लोग मापा-चक्र कहते हैँ । यदि कोई मृशन्नसे यह्‌ पछे कि, आएनिक, ) 88९ अादेक अआकृत सस्कृत पाली 'क्या “वैदिक माषा फिर आने को है? कया कुछ सहस्नाब्दियों के वाद पुनः 'बैंदिक' मापा होगी ?' तो मेरा उत्तर नकारात्मकता लिए हुए ही हो सकता है, क्योकि ऐसे कुछ लक्षण दिखाई नहो देते । हां, यदि कोई यह कहे कि संयोगात्मक (मूल पदों के साथ संदंध पद का मिला होना--जैसे 'रामस्य) से वियोगात्मक (मूल पदों से संदध पद का प्रथक होना--जैसे राम का) भौर पुनः संयोगात्मक (जैसे बोलने में 'राम का” से 'राम्का')) तो किसी सीमा तक यह कथन ग्राह्म हो सकता है । कुछ लोग कहते हैं कि परिवर्तेत का यह क्रम चक्न-रूप में ने होकर सीधी रेखा के रूप में होता है, क्योकि भापा का बदलाव निरंतर अधिक घना होता जाता है, मौर इसका कोई अत दिखाई नहीं देता बागे बढ़ता क्रम नजिक जि णकल- जि न वंदिक संत्कृत पाली ब्राकृत अपभ्रंश आधुनिक भारतीय बावयं-मापाएं &ै इस परिवतेन में कोई रुकावट नहीं है । कुछ भी हो यह एक तथ्य है कि भाषा निरंतर बदलती रहती है, और ऊपर जो बात सीधी रेखा के हूप में बताई गई है उससे यह परिणाम निकछता है कि इस परिवतन का कोई अत नहीं होगा, और भाषा का अन्तिम स्वरूप कया हो ग।-- यह कोई नहीं बता सकता । भाषा-परिव्तेन के कई कारण है, जिनमें मनुष्य और मनुध्य का सम्राज तथा उसकी परिस्थितियां प्रमुख हैं। जब ये सब बदलते रहते हैं तो माषा क्‍यों न बदले ? सैद्धान्तिक रूप में तो यह कहा जाता है कि-- (१) भाषा प्रति क्षण बदलती है । (२) भाषा प्रति पग पर बदलती है। (३) एक व्यक्ति में मी भाषा प्रति क्षण परिवर्तित होती रहती है। १/५/२/२ भाषा की गति में एक और बात देखी गई है कि बोलने वाले सर्वदा इस बात की चेष्टा करते हैं कि यथासंभव भाषा को क्षासान बनाएँ-शब्दों की आसानी, वाकयों की आसानी, अर्थ-बोतन की आसानो आदि । पर व्यवहार में कुछ उल्टा ही दिखाई देता हैं-छोग कठिन शब्द, विलष्ट वाक्य और चवकरदार अर्थ की ओर जाते हुए देखे जाते हैं। इसका मूल कारण यह है कि यह कठिनाई उन लोगों द्वारा उप- स्थित की जाती है जो भाषा को अपने ढंग से अलंकृत करना चाहते हैं। इसका प्रार॑म तो लिखित भाषा से होता है पर इसकी प्रतिध्वनि उच्चरित भाषा में भी होती रहती है। परिणाम यह होता है कि 'माषा' का सीधा सिद्धान्त कुछ विकृत होता सा दिखाई देता है । यदि भाषा का उच्चरित रूप ही रहे और उसका उद्देश्य केवल व्यावहारिक ही हो तो 'कठिन से सरल वाला सिद्धांत चल सकता है । यह भी देखा गया है क्ि प्रयोग करने वाले भाषा के द्वारा सुक्ष्म विचारों को भी प्रका« शित करना चाहते हैं ।माषा-उत्पत्ति के मुल में ही यह भावना रही होगी कि जो स्थूल नहीं हैं उन्हें किस प्रकार प्रकाशित किया जाए, ओर जब एक बार यह साधन प्राप्त हो गया तो इस बात को चेष्ठा करता स्वाभाविक है कि भाषा को वह क्षमता प्रदान की जाए जिससे वह भति सूक्ष्म मावों को प्रकाशित करने का माध्यम बन सके । इसी को मानकर कुछ लछोग कहते हैं कि मापा अधिकाधिक शक्तिशाली होती जाती है, उसको क्षमता बढ़ती जाती है, वह प्रोढ होती जाती है, उसमें गुरुत्व जाता जाता है, वह समुद्ध होती जाती है आदि आदि | पर मूल बात तो यही है कि किसी भी दिलख्ला में क्यों न हो, किसी मी प्रकार से क्‍यों न हो वह परिवर्तित होती जाती है, और परिवतेत का यह क्रम सतत है । ६० भाषा की प्रवृत्ति के बारे में याद रखें--- ' (१) भाषा चिर परिवर्तंनशील है । (२) परिवतंन प्रायः स्तीधी रेखा के रूप में है अतः ग तिम स्वरूप नहीं हो सकता । (३) सामान्य सिद्धान्त 'तो कठिन से सरल' की ओर है पर लिखित रूप कुछ विकृतियां उपस्थित कर देता है । (४) सैद्धान्तिक रूप में मापा प्रति पग, प्रति क्षण परिवर्तित होती है इसे इस गन +मी तने ता ० ओ्े+-+--+-२े * ने +-ा प्रकार देख सकते है। ] प्रतिपल (समय) ( | । प परिवतनशी लता | 4 | ४४ | मूल रूप प्रतिपग (स्थान) (यदि कोई रहा हो) प्रकृति तथा प्रवृत्ति दोनों को मिलाले तो सामान्य विशेषताओं के साथ मिल कर 'भाषा' का पूर्ण स्वरूप उपस्थित हो जाता है । भाषा उच्चरित--( लिखित) | | । ् भाषा का ॥ *ि परिवतंनशील / प्रवृत्ति |. स्वरूप. [टेपरकति -( अनुकरण द्वारा जाजत | | , श ह।॒ विशष बातें ' या कम मंतापध्य कक. व्यक्त, व्यवस्थित, सार्थक वर्ग को इच्छानुसार अब तो आप इन दो प्रहनो का उत्तर दे सकेगे--- (१) भाषा का स्वरूप स्पष्ट कीजिए | (२) विचार-प्रकाशन की क्रिया पर अपने विचार लिखिए । नर २/! भाषा को उत्पत्ति भाषा की उपयोगिता और उप्तके स्वरूप को जानने के उपरान्त एक अय-न प्रश्न स्वतः उत्पन्न होता है कि भाषा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई | जो वस्तु हमारे सामने है, जिसका हम प्रतिदिन उपयोग करते हैं, जो हमारे सामाजिक जीवन का आवश्यक अंग है, जिसके बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते-उसके संबंध में यह जानना तो बहुत ही स्वाभाविक है कि इसकी उत्पत्ति केसे हुई । हमें भाषा कहां से ओर किप्त प्रकार मिली, “उत्पत्ति! की बात बड़ी विचित्र है । हम जानना तो चाहते हैं परन्तु अनेक प्रस॑ंगों में “उत्पत्ति! संबंधी उत्तर नहीं मिल पाता । सहस्राब्दियों से विद्वानों और विन्तकों के सामने यह भी प्रश्न रहा है कि मनुष्य की उत्पत्ति क्रिस प्रकार हुई, सृष्ठि की उत्पत्ति किस प्रकार हुई । अनेक विचारकों ने इन पर विचार किया और अपने प्रिद्धान्त बताए। भारत में तो वैदिक काल से अब तक विचार-विमर्श होता रहा है, और अनेक सिद्धान्तों के द्वारा जगतोत्पत्ति के संबंध में विचार किया है। भाषा' भी बहुत पुरानी है। मनुष्य से कुछ ही कम पुरानी समझिए । जब "मनुष्य या 'प्राणी' एक से दो हुआ होगा, तभी से “मापा! की आवश्यकता रही होगी ओर उसी समय “भाषा की उत्पत्ति हुई होगी। पर कैसे ? इस प्रइन का उत्तर इतना सरल नहीं है । 'भापा बहुत समय से 'मतुष्य' के साथ चलती आई है, वह हमारा अंग बन गई है, उससे पृथऋू हमारा अस्तित्व ही नहीं, भौर न उसके हमसे अलग होने की संमावना है। इसलिए कुछ लोग यह मानते हूँ कि इस उत्पत्ति वाले प्रश्व पर यदि मौन रहा जाए तो उत्तम है। मापा के इस पक्ष पर इतना विचार हुआ है कि भाषा-दैज्ञानिकों' की एक परिषद्‌ ने तो भाषा-उत्पत्ति! विषय पर विचार करता वर्जित कर दिया और निर्णय लिया कि इस प्रश्न पर विचार कर समय का दुरुपयोग न किया जाए। पर इस निर्णय से हमारे छात्रों की जिज्ञासा शान्त नहीं होगी, अतः संक्षेप में कुछ विचार प्रस्तुत किए जा रहें हैं । उत्पत्ति! के संबंध में हर ली: ९ “उत्पत्ति के संबंध में एक मान्यता सर्वदा से चछती आई है और आज भी कुछ लोग कमी कभी कह देते हैं कि अन्य सत्ताओं की तरह भाषा की उत्पत्ति मी भगवान से हुई परमात्मा ने जैसे सवको बनाया वैसे ही मापा भी १२ बना दी । वायु, जह, आकाण, अग्नि तंथा पृथ्वी के बनाने वाले ने यह मो उचित समझा कि सापा भी वना दी जाएं। पर जब मनुष्य एक प्रकार का बनाया तो भाषा इतने प्रऊर की क्‍यों ? ध्तमी लोग एक्सी भाषा क्‍यों नहीं बोलते ? राष्ट्रीय क्या अतर्राष्ट्रीय भापा का भी कोई प्रइन नहीं उठता ओर भापा की एकता पर संपूर्ण विश्व के लोग 'माई-माई” को कल्पना को साकार कर वाते । पर ऐसा नहीं है। अलूग-अरूग वर्ग अलग-अलग मापाएं बोलते हैं, और आजकल इस प्रकार के सिद्धान्त को कोई मानता भी नहीं, चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक । इस सिद्धान्त के पीछे घामिक मावना मालुम होती है, तमी तो कोई ब्रह्मा के मुख से इसकी उत्पत्ति बताते हैं और कोई अल्ला- ताला के प्रथम शब्दों में इसका अस्तित्व देखते हैं। पर इस प्रकार समाधान नहीं होता, और मापा-उत्पत्ति के बिपय में अन्य कई प्रकार से सोचा जाता हैँ । २/३/१ यह स्ंधिदित है कि सापा का संबंध विविध प्रक्रार की घ्वनियों से है। किसी भी उच्चरित भाषा में कुछ व्यक्त ध्वनि-संकेत होते हैं, जिनका व्यवस्थित समुच्चय मापा की सत्ता स्थापित करता है। भाषा का मूल ध्वनि में है, अत्त. अनेक विद्वानों ने इस बात पर विचार किया कि किस प्रकार की ध्वनि से भापा को उसका स्वरूप प्राप्त हुआ। प्रत्येक भाषा में ऐसे अनेक शब्द होते हैं जिनका उद्गम उनसे संबंधित ध्वनि से हो जाता हैं । कुछ शब्द देखिए:-- चपड़-चपड़ ज्यादा चपड़-चपड़ क्‍यों करते हो ? सरपट मेरे कहते ही वह सरपट दौड़ गया । धकक्‍्कम-धक्‍का मेले की धकक्रमन्धक्क्रा देखकर में तो घबड़ा गया । ताबड़-तोड़ उसने ताबड़-तोड़ तीन चार तो लगा ही दिए ! धप्प वह धंप्प से बंठ गया । इन छाब्दों में भी क्रिया का द्योतन बड़ी खुबी से होता है। तनिक तमाचा, लप्पड़, थप्पड़, झापड़, चांदा, चपत, घौल शब्दों को देखिए । सामान्यतः इन सबका भर्थ एक ही होता है, परन्तु सभी के अर्थो में थोड़ा-धोड़ा अन्तर है। ये शब्द उस ध्वनि पर आधारित हैं जो इनसे संबंधित क्रिया के करने में होता है । एक और शब्द देखिए:-- 'गिरना' को संस्कृत में 'पत्त' धातु से बताया जाता है । 'पत् से पत्ता, पत्र, पत्रक, पाती, पत्तिया, पतला, पत्त (ताश के) पातरा (अदरक के) पत्तर (चांदी-सोने का) पत्तल (पत्तों की) पत्तेली, पत्रा (पंचांग), पत्चित, १३ पत्ती, पातक, पातकी, पतरभड़, पत्री (जन्म-पत्री), पात, पठोड़े (पत्ती युक्त पकोड़े) पतन, त!दि अनेक छाब्द उद्मृत हैं गौर विभिन्न बर्थो में लिए जाते हैं. परन्तु सब की] शब्दों के मूल में वही 'पत्ता है जो पेड़ से गिरने पर 'पत्त ज॑सा दब्द करता है । २/३/२ हज] इसी प्रकार श्रवणेन्द्रिय द्वारा ग्रहीत अनेक ध्वनियां हैं जो हमें शब्दों के रूप समझने में सहायता प्रदान करती हैं | यह भी एक विचा रणएीय विपय है कि मूल शब्द जाने किस ध्वनि से क्रिस रूप में आरंभ हुआ होगा भौर आज विभिन्न परिस्थितियों के फछस्वढूर इतना परिवर्तित होगया कि मूल तक पहुंचने में बड़ी कठिनाई होती है । कमी-कभी तो क्रिसी झब्द के मूल- स्वरूप तक पहुंचना नितांत बसंमत्र हो जाता है | फिर भी यह बहुत कुछ संमव दिखाई देता है कि अनेक घरों व. संबंध घ्वनियों से है। भाषा-उत्पत्ति के इस सिद्धांत में तो कुछ भी तथ्य नही है कि भाषा का प्र।रंभिक रूप कुछ लोगों ने मिलकर ते किया | हां, एक वात अवश्य दिखाई देती है कि जो भी रूप चल निक्रला उसे सामाजिक मान्यता मिली । यदि ऐसा नहीं होता तो किसी भी प्रकार से मापा बनता संभव नहीं होता । बत: यदि "स्वीकार करने की वात को “मान्यता के रुप में मार्ने तो इस ध्िद्धान्त में सार अवच्य है, परन्तु संपूर्णा मापा करा निर्शाय करना, तथ्यहीन दिलाई देता है। मापा विचारों की अभिव्यक्ति है, और यदि दोया अधिक व्यक्ति किसी एक शब्द को एक ही अर्थ में ग्रहण नहीं करते तो विचारों का आदान-प्रदान कभी भी संभव नहीं हो सक्तत्ता। अन्य भाषा न समझने का यही कारण होता है । मान लीजिए आपको 'विता' शब्द का बोध कराना है और जिससे यह शब्द कहा जा रहा है वह भी इस शब्द की उसी रूप में ग्रहरा करता है जो आपने ग्रहण किया है तब तो सब कुछ ठीक है, परन्तु यदि वह व्यक्ति 'पिता! के उत्त अर्थ की मान्यता, क्रिसी भी कारण से क्यों न हो, स्वीकार नहीं करता तो सब कुछ व्यय ही होगा । €<-|7 पिता »/ 'विता' कर -> वक्ता गे पिता % “अन्य +--> श्रोता हित बओ नाल कक की जनक लीन अनीता. ">पम+->क पर इस विवरण से उत्पत्ति संबंवी सिद्धान्त को निकालमे में सहायता नहीं मिलती । हमें कुछ और बातों पर घ्यान देना होगा । रे २/५/१ धघ्वति-साम्य' पर भाषा विद्येष के अनेक शब्दों की सिद्धि प्रतीत होती है | जैसी ध्वनि सुनी वसा ही शब्द बन गया, और फिर उससे अन्य अनेक संबंधित शब्द बनने छगे। यहां भी एक प्रशइन उठता है कि यदि वध्वनि-साम्य पर ही शब्द बने तो विभिन्न मापाओों में एक प्राणी या पदार्थ के लिए अरूगन्‍्अलग शब्द कैसे बन गए:--- हिन्दी का घोड़ा, संस्कृत का 'अश्व, अग्न॑जी का हॉस, जमंन का “रॉस! भादि में ध्वनि-साम्य तो नही है, परन्तु भर्थ-साम्य है । इन शब्दों के मूल में कुछ अन्य कारण रहे होंगे, परन्तु भाषा-विशेप में ध्वनि-साम्य पर कुछ शब्द निकलते प्रतीत होते हैं । २/५/२ हृश्य जगत का घ्वनिश्साम्प बहुत से शब्दों का प्रदाता है । कुछ घ्वतियां देखिए-- काठ काॉउ अथवा का का कौओआ, काम, काक, कागा किऊ किऊ (पिऊ पिऊ) कोकिल, कोइल; पिक पत्‌ पत्त पत्र, पत्ता फट फट फट फटफटिया (प्रचलित हिन्दीब्शब्द) झर झर्‌ झर झरना कौआ, कोइल, पत्ता, फटफटिया, झरना आदि को हम देखते हैं, उनके द्वारा उस प्रकार का शब्द सुनते हैं, भत: उनके लिए उनके द्वारा निसृत ध्वनि के आधार पर शब्द बनाए गए । इसे अनुकरणावाद कह सकते हैं । २/५/३ कुछ ऐसे शब्द भी हैं जिनका कोई स्थुल रूप तो होता नहीं, परन्तु जिन्हें सुना जाता है और जिस प्रकार सुना जाता है उसी प्रकार के शब्दों से उनका बोध होता है।-- संज्ञा इब्द चाँठा.. (चटाख्‌ जसी ध्वनि पर आधारित) विशेषण चटपटा. (जिह्ठा भादि द्वारा की गई ध्वन्ति पर आधारित) क्रिया मिमियाना (मेंयू मेंय ध्वनि पर आधारित) हसी प्रकार के भनेक शब्द ध्वनियों पर आधारित है । यद्यपि इन्हें हम देख नहीं पाते परन्तु ध्वनियों के आधार पर इनका नामकरण हो गया है। इन्हें अनुरणन' आदि सिद्धान्तों के अन्तर्गत रखा जा सकता है परन्तु हैं ये ध्वन्ति- अनु करण ही । २/५/४ कभी-कभी देखा जाता है कि हमारे मुख से ही विभिश्त परि- स्थितियों में अनेक प्रकार के शब्द निकलते हैं, ये शब्द प्रचलित हो जाते हैं परन्तु इनका मूल वे घ्वनियां ही हैं जो स्वतः निकल पड़ती हैं;-- आह (भाव) ओह , उहू , ऊहं, थौ शब्दों को देखिए--किसी दुखानुभति पर इम प्रकार के घब्द निकलते हूँ । छि: छिः, बतू, घिक्‌ ये ग्द भी स्वतः निसत हैं परन्तु इनका संबंध धणा आदि से है | तात्पय यह है कि विभिन्‍न प्रकार के मनोभावों को व्यवत्त करने के लिए विभिन्‍न प्रकार की वर्नियां हमारे मुख से निकल पड़ती हैँ। इस आधार पर कुछ लोग कहने लगे कि आयद सभी घब्द हमारे मनोमावसूचक बब्दों पर आधारित हैं और इस सिद्धान्त को प्रमोमावादिव्यंजकतावाद सिद्धान्त कहा गया । परन्तु इसमें संदेह नहीं कि इन मूल में मी ध्वनि-साम्प ही है । ८ न्ट् घृ 0१ थ्पै हि भ २/५/५ योरुप जाते समय जब हमारा वियतनाम जहाज जिवृटी बंदरगाह पर रुका तो प्रातःकाल एक विचित्र प्रकार के गव्द से जहाज निनादित हो रहा था। इसमें कुछ संगीत था, कुछ गतिभीलता थी और कुछ विवित्रता । मैंने ठकर देखा कि यह 'ई यो ई' छब्द कहां से आ रहा है, देखा तो सामान हाज पर चढ़ाया जा रहा था | बोदी को देखो, बेलदारों को देखो, नाविकों | देखो, घनधोर परिश्रम करने “वाले किसी को भी देखो कुछ ऐसी वॉनियां मिल जाएगी जो उस काय॑ विद्यंप को करते समय मजदरों के ख से निकलती रहती हैं। नायर ने कहा कि सभी शब्द इन्हीं ध्वनियों वने हैं । यह 'श्रम-परिहरण' सिद्धान्त जिसे “ये हे हो' सिद्धान्त भी कहा गया अधिक दूर तक नहीं चलता | कुछ झब्द इससे अवश्य संबंधित हैं । पर यह सिद्धान्त भी ध्वनि-साम्य पर बाबारित है। | 3], 56| 0५ 0 प्रा” का कक | २/०/६ व्वनि-साम्य के कई अन्य प्रकार भी हो सकते हैं कोर उन्हें 'दा-टा' “व्‌, 'सिग-सांग, डिग-डग , धवाउ-वाउ' विभिन्न प्रकार के सिद्धान्तों द्वारा वर्णित किया गया है पर सबके मूल में ध्वनियां हैं और ध्वनि को आधार मानकर ही इन्हें विभिन्न प्रकार के नाम दिए गए हैं। इन्हें इस प्रकार दिखाया जा सकता हैः -- नापा-उत्पत्ि [(3) हृ्य जगत का ब्वनि-त्ताम्प-विशिन्न प्राणी, पदार्थ मिस ] | ( ) अह्ृच्य घदद - चद्तए विशद्येपण क्रयाए । | । 879) विस्मयादिवोधक घ्वनि-साम्य--सुख, दुःख, शणा | । आदि के भाव ! व्वनि-माम्य - (५) श्रमपरिहरण- मजदूरों से संबंधित | (विक्रासवाद का | (५) दातु-सिद्धान्त, क्रिया पद--'पत', "पिव' आदि समन्वित हूप। | (शं ) 'दा-ठा', 'व-व', पिग-सांग', 'डिग-डँग, 'बाउ- ६ वाद आदि बनेक् नामकरण । १६ २/५/७ स्वीट नाम के विद्वान ने इन सभी सिद्धान्तों को मिलाकर इनमें एक बात और भिलाई कि बहुत से शब्द प्रतीकात्मक होते हैं । उसके हिसाब से किसी भाषा के शब्दों को तीन श्र शियों में रखा जा सकता है-- (3) अनुकरणात्मक ४: काक, झनझन, मिमियाता, झरना । ( ) मनोमावात्मक : आह , भोह, घिक्‌, धत्‌ । (॥7) प्रतीकात्मक 5: शबंत, पीना, दांत । (प्रतीकात्मक शब्दों को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है और कहां गया है कि जो शठ्द घ्वनि-साम्य से पिद्ध नहीं होते वे शब्द 'प्रततीकात्मक' होते हैं। 'पीने' में होठों को विशेष महत्व मिलता है अतः प वर्ग के 'प व मिलकर “पिब! बनाते हैं और इनसे 'पीना' “पानी” आदि भनेक शब्द बनते हैं। अरबी भाषा की श्र्‌ब' घातु भी कुछ इगी प्रकार की है जिससे 'शबेंत' शब्द बनता है ।) २/६/१ यह तो भाषा की उत्पत्ति का पता लगाने की एक क्रिया है जिसे कुछ लोग 'प्रत्यक्ष' कहते हैं, कितु इसके अतिरिक्त एक और पद्धति है जिसे 'परोक्ष' कहा जा सकता है। इस पद्धति के अनुसार काम करने के लिए कुछ ऐसी बातें हमारे सामने उपस्थित होती हैं जिनके वर्तमान रूप को लेकर हम उनके अवीत के संबंत्र में कुछ अनुमान छगा सकते हैं। ऐसा माना गया है कि भाषा निरंतर विकप्तित होती है, कुछ लोग कहते हैं कि भाषा का यह विकास ठीक उसी प्रकार का है जैसे बच्चों की माषा सीखने की प्रक्रि| | परन्तु यह बात मी ध्यान में रखने की है कि बच्चे के सामने भाषा का विकप्तित रूप ही विद्यमान रहता है। कुछ लोगों का विचार है कि यदि हम अत्यन्त पिछड़े हुए लोगों कि भाषा को देखें तो भाषा के प्रारम्मिक रूप संबधी कुछ बातें स्पष्ट हो सकती हैं। पर क्या ये भाषाएं जिन्हें जंगली या अद्ध सम्य लोग प्रयुक्त करते हैं मापा का आदिम रूप हैं? तीसरा वर्ग इस बात को मानता है कि आधुनिक भाषाओं के जो पूर्वेवर्ती रूप मिलते हैं वे हमें मूल भाषा की भबोर ले जाते हैं गौर भाषा की.उत्पत्ति के संबंध में कुछ सुझाव दे सकते हैं। एक सीमा तक तो हम अवश्य पहुंच सकते हैं, क्योंकि उनका कुछ न कुछ रूप हमारे सामने है । परन्तु भाषा की उत्पत्ति का पता लगाना कठिन है। इस प्रकार ये तीन बातें हमारे सामने आती हैं । २/६/२ बच्चों की माषा- बच्चों को भाषा शुरू करते देखा होगा । पहले कुछ अस्पष्ट घ्वनियां निकालते हैं। फिर कुछ शब्द बोलते हैं, जिनमें पुन रा- वृत्तियाँ होती हैं, भोष्ण्य-ध्वनियों की प्रधानता होती है- पापा, बाबा, >/ ३ /४ व. नाम ह्या ध्टप 5 चुक आन / चना तन पृ प्र ८ पर स्द्ठ 694 हर £ मूजीडी औ८ीयी तप हल १७ ट * + अवकनक। ट ड <..०2 * डे न्‍ बा न 2. श् । डे कप हद < की ड़ हा १ मी ३.2 अधि बह पिन है. ा्जज्क ४ 002 है न माम्मा । बच्चे के शब्द ही पूरे अब के चोतक होते हे हैं। घायद भापा भी पहुछे घढ्द-वात्यों के रूप में रही हो, संन्ता पद ही | जा अ्वननन कललनयथ. अकज-5 के #०००-आ गी बच्च 2 सन ८८ पक आओ कसा जो भाषा के प्रारम्मिक झग नहा रह रेगी । बच्चे के चार रू "०००७० न््ज्ज्त् जल 3 >> प्लस अर पकने: ० मकनपक हुंंग > न्ज के विकध्चित नापा बोली जाती है, छौर बोलने वाले अपने ढंग से ठीक हो बोलते हैं, यद्यपि कमी कभी बच्चे को दुलारते समय उसकी बोली का छतुधसमन मा करन लग जात ६-- मद छाज्ा बदया तांदा, तोदा 5] जि ब् पाप ही. ब्रा ४, (भर राजा भंया । साजा, छाजा) इस बाला का बच्च पर क्या प्रमाव प्ह्त हागा अिन+यन अमर, किन: जज अभमयान्माम वा अमाा हि ०. न क्ना महल विडा। अनयिक विनय जता दम. 2 अर काफ-2०-०जमक, अर 55 अन्ऋ-्«ऋ-«+, इता हागा यह ता सहज म हा समझा जा सकता हैं, परन्तु आवक क्मद बच्चा सामान्य रूप मे शुद्ध मापा हा खुनता हैं । बतः बच्चे की माया स मापा के विक्रम्धि हांच का दया का तो पता लग सकता है पर यहु पता छगाना मृद्दिकल हैँ कि मापा की उत्पत्ति किस प्रकार हद । हणु था दस च्य छात्रा का माया क यद्दों है कि न जाने है । पहली बात तो है मापा अपने वर्तमान भाषा का विकास होता कितने परिव्नों के उपरान्त य थे मापा का विकास चलता है| कुछ वर्गों की भाषाएं समान रूप से हुए छोगों दी भाषा से भाषा की उत्पत्ति लगाना केसे संमव हो सकता है । एक बात अवदय की भाषा अधिक अलंकृत, ग्रफित ् वह ्ँ | दत: पछड का पता किस प्रकार मालुम हती फक्रि ओर चकक्‍्करदार नहीं होती है इसी प्रकार मापा का रूप भी अलंका रहीन, सीधा और हलका रहा होगा | पर यह बात तो भौर वर्गों में मी देखी जा जद ह्ए ब्न्ज्ज््ग अर छ्क व्या पार अली जम. व्ककनक दा +-्पकनम कक. त्यक्तार # ॑न्‍न्‍पमयान्ममा, पर अमर, सकती है जो पिछड़ हुए घहां हूं। एक व्यापारा आर एक साहित्यकार है का नापा दंख ॥ साहित्यकार व्यापारों की माया स्पष्ट, सीधी और सूक्ष्म की चमत्कत, चक्करदार और गद्त्व लिए हुए होगी । की उत्पत्ति का उमायात मापा के होगी, भापा ढ्पों 4 8 रैँ ब्तु ऑल जि न्‍2त जि डर त्त मां नहा हाता। बा] हम ुणपा:> जे मापा "चामण्यक चुका माही भत्र रही माया के इतिहास की बात | कुछ भाषाएं क्पती समद्धि का वाह्म्मय बाघुनिक काल तक संजोए हुए हैंँ। आध्ृरतिक भारतीय बार्य नापाएं ही छीजिए। तारे उत्तर-मारत में ये मापाएं दोली जाती हे, श्८ इनका पुर्वे रूप अपश्रञ्ञों में पाया जाता है, पाली और प्राक्ृत में पाया जाता है । उनसे भी पहले संस्क्ृत मापा रही, भोर उससे मी पूर्व वैदिक संस्कृत थी । वैदिक संस्क्रत से पहले की मापा को मूल मारत-यूरोपीय भाषा कहा जाता है जिसके रूप केवछ कल्पना में ही निवास करते हैं । इस क्रम को देखने से पता चलता है कि मापा कठिन से सरल होती गई- ज्यों ज्यों हम पीछे चलते हैं हमें कठिन मापा मिलती जाती है। तो क्‍या मापा अपनी उत्पत्ति के समय कठिनतम रही होगी ? यह तो बड़े आइचये की वात मालुम होती है । आरंभ में तो शायद भाषा बहुत ही सरल रही ही, नियमहीन रही हो, केवल एक-एक पदों के वाकयों वाली रही हो । ये दोनों बातें मेल नहीं खाती अतएवं भाषा की उत्पत्ति के जानने में भाषाओं का इतिहास भी हमारी सहायता नहीं करता । एक बात दिखाई देती है कि जेसे पहले की भाषाओं में विभिन्न रूप मिलते हैं उसी प्रकार भाषा अपने प्रारंभिक काल में अनेक रूपों वाली रही हो, ओर शनः शर्ने: एकरूपता आती गई हो । तो आप इस संपूर्ण प्रसंग को इस प्रकार याद करने की चेष्टा करें भाषा की उत्पत्ति | आनुमानिक कोई निश्चत सिद्धान्त नही है | | परोक्ष | | २. परमात्मा द्वारा प्रदत्त १, बच्चों की भाषा २, समझौते द्वारा निश्चित्त २. अप्तम्पों की मापा 3 घ्वनि-साम्य पर आधारित ३. मापा का इतिहास है, प्रतीकों से विकसित (प्तमी अनुपयुक्त) ५, अनेक सिद्धान्तों द्वारा प्रतिपादित () ये है हो-- श्रम को कम करने के लिए उच्चरित शब्द (॥) दा दा--काम करने की गति का अनुक्ररण () व्‌ वू-भावकता में ग्रुनग्रुताने की क्रिया (५) सिग सौग--गाने की सी क्रिया (९) डिग डॉग--लकड़ी या घातु पर मारने से घ्वनित १६ (श) बाउ वाउ-कुत्ते की बोली, अनुकरण-सिद्धान्त पर व्यंग्य । (प्रत्येक से कुछ शब्द निकले प्रतीत होते हैं) नीचे लिखे प्रदव देखिए।--- (१) भाषा-उत्पत्ति के कुछ सिद्धान्तों का नामांकन कीजिए और उन पर अपना मत लिखिए । (नाम-संगीत, सम्पर्क, इंगित, मनो मावाभिव्यक्ति, अनु रणन, अनुकरणा, प्रतीक, श्रमपरिहरण, परोक्ष) (२) भाषा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? अपनी बात समझाकर लिखिए । 3 माषा-शास्त्र ग्रौर उसका ग्रध्ययन | अ>-क>>»ट अन्न -अनी-+-+-+--मक १०० काका. नी पी न नीीीनी तशनी नि न कस तीन ख नी नी न सक टल्‍ल्‍ि् ओ क्‍ ख ्ड:::$स:-ससेससब औ- आलम 3>+4 9» +क/“+ पा 0४* ७ मम ३/१ भाषा का स्वरूप स्पष्ट करने की कुछ चेष्टा की जा चुकी है । भाषा चया है ? भाषा क्‍या करती है? भाषा का उपयोग क्‍या है? भाषा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई होगी ?--आदि प्रश्नों पर संक्षेप में विचार किया जा चुका है। 'भाषा' का स्वरूप यथासंभव स्पष्ट करने के बाद उसके अध्ययन का प्रश्न आता है। भाषा का अध्ययन क्विस प्रकार होना चाहिए ? भमाषा- अध्ययन विषयक प्रसंग ही भाषा-शास्त्र अथवा भाषा-विज्ञान को सामने लाता है । विधिवत अध्ययन को ही विज्ञान या शास्त्र कहते है। हमारे पाठक इस बात को जानने के इच्छुक होंगे कि माषाध्शास्त्र क्या है, और यदि वह भाषा- विषयक विधिवत्‌ अध्ययन है तो इस अध्ययन का विधि-विधान किस प्रकार का है । आइए, किचित प्रयास करें । ३/२ अध्ययन करने में सामग्री विशेष की उपस्थिति अनिवाये होती है। जाषा' हमारे सामने उपस्थित है। कितनी भाषाएं उपस्थित है ? यह कुछ ठीक नहीं । दो हजार तक गिनने के उपरान्त मी अमी तक हजारों भाषाएं गित्तने को बाकी हैं। जो भाषाएं हमारे सामने उपस्थित है उनके पूर्व रूप भी मिलते है । इस प्रकार यदि देखें तो भाषाओं का हमारे सामने इतना बड़ा ढेर है कि अध्ययन की बडी कठिनाई सामने आ जाती है। हमें अपना क्षेत्र सीसित करना ही पड़ेगा | यदि हम 'भाषा' का ही अध्ययन करें तो उसकी सामान्य बातों को जानना होगा, ये बातें जितनी भी भाषाएं हो सकती है उनमें समान रूप से पाई जाएगी । भाषा किस प्रकार बोली जाती है, व्यवस्थित की जाती है, अर्थ देती है--इनके पढ़ने की एक सामान्य पद्धति हो सकती है। यदि हम कई वर्तमान भाषाओं का अध्ययन करना चाहें तो हम उनकी तुलना कर सकते है, समानताए और असमानताए हुंढ़ सकते है, ओर यदि किसी एक ही भाषा को उसके पूर्व रूपों सहित पढ़ता या अध्ययत करता चाहें तो उस भाषा के इतिहास पर, विकास पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं। अध्ययन के उपरान्त कुछ सिद्धान्त मी बना सकते है, कुछ प्रवत्तियों का संक्रेत भी कर सकते है और विशेषताओं का उल्लेख भी किया जा सकता है। इस प्रकार माषा-अध्ययन का क्षेत्र एक भाषा से भी सीमित हो सकता है, कई भाषाओं से भी और भाषा मात्र से भी । (१) तुलनात्मक--एक ही समय की विविध भाषाएं । (२) ऐतिहासिक--एक भाषा के पूर्व रूप । (३) ऐतिहासिक-तुलनात्मक--कई भाषाओं के पूर्व रूप । २/३/३ अध्ययन का एक प्रकार यह भी हो सकता है कि हम किसी एक ही भाषा का अध्ययन करें। इस प्रकार की भाषा का अध्ययन भी दो प्रकार का हो सकता हूँ-- (१) कोई सामयिक भाषा (२) कोई पूर्वभापा सामयिक भाषा का उच्चरित रूप हमारे सामने होता है, किन्तु पृव भाषा पुस्तकों, परचों या अतिवुद्ध व्यक्तियों में उपलब्ध होती है। अतिवद्ध व्यक्ति के लिए भी आज से ५०-६० वर्ष पहले की भाषा का रूप प्रस्तुत करना कठिन होता है क्योंकि वह भी वर्तमान में रहकर वर्तमान भाषा का ही प्रयोग करने लग जाता है | पुस्तकों या परचों भें संग्रहीत भाषा का अध्ययन तो हो सकता है परन्तु उसकी उच्चारण संबंधी बातों का पता लगाना असंभव होता है। हां, आजकल ऐसे साधन प्राप्त हो गए हैं जिनसे पिछली भाषा या बोली का भी अध्ययन संभव हो सकेगा । आज जो भाषा बोली जाती हैं उसे टेप कर लीजिए, प्रति ३० वर्ष बाद टेप को नया करते जाइए, संभव है यह भी आवश्यकता न रह जाय । चार बार टेप करने के उपरान्त आप १०० वर्ष बाद भी उस्त भाषा का अध्ययन कर सकेगे। अध्ययन समय २०६० | १२० वर्ष तक प्रथण टेष. द्वितीय टेप. तृवीय टैप... चतुर्थ टेप (१६६०). (६६६०) (२०२०) (२०५०) (२०५८०) पर पिछले समय में यह सुविधा नहीं थी । अतः आज का भध्येता किसी भाषा को पूर्णतः जानने में किसी क्ाधुनिक, उच्चरित भाषा को ही ले सकता हूँ। अध्ययन के इस प्रकार को 'वरणणनात्मक' कहा जा सकता हैं, क्योंकि यह अध्ययन वशुन-प्रधान होगा, किसी एक ही भाषा की विविध बातों को बताएगा--किस प्रकार बोली जाती है, ध्वत्तियां बया है, जब्दो के रूप किस प्रकार बनते हैं, उन्हें वाक्‍्यों में केसे संजोया जाता है, उतार-चढाव कैसे होता है, उसकी प्रवृत्ति अथवा प्रकृति किस प्रकार की है, आदि । २३ ३/३/४ यह तो हुई भापाविशेष या कई भाषाओं की बात, पर हम किन्‍्हीं विश्विप्ट भाषाओं को न लेकर भापा-मान्र को ले सकते हैं, भर्थात्‌ ऐसा अध्ययन भी कर सकते हैं जो सभी भाषाओं पर लाग॒ु हो, जिसमें भाषा की सामान्य बातों पर विचार किया जाता हो । इस अध्ययन को सामान्य भाषा- विज्ञान कहा जा सकता है। हम इस बात को जानने की चेष्टा करते हैं कि मापा की अभिव्यक्ति किस प्रकार होती है, परिवर्तत का क्‍या क्रम होता है, विकास की क्या दिशा होती है, वाक्य किप्त प्रकार बनते हैं, बर्थ-द्योतन की क्या प्रक्रिया होती है, आदि । भापाच्शास्त्र के अपने प्रारंभिक विद्याथियों को हम इसी प्रकार का भाषा-विज्ञान बताने की चेष्टा करते हैं ठाकि उन्हें सामान्य सिद्धान्त मालूम हो जाएं और भविष्य में यदि उनमें इस प्रकार की ढचि उत्पन्न हो सके तो, भागे बढ़कर वर्णतात्मक, ऐतिहासिक, तुलनात्मक या अन्य विधियों से किस एक भाषा या कई मभमापाओं का अध्ययन कर सके । पर सामान्य भाषा-विज्ञान अनेक प्रकार के अध्ययनों का समन्वय है जिनमें से इस स्थान पर अधिक महत्वपूर्ण अंगों का ही परिचय दिया जाएगा | ३/३/४/१ भाषा की सबसे छोटी इकाई, जिसमें अर्थ-प्रकाशन की क्षमता होती है, वाक्य है। यह सुनकर आप में से कुछ को आइचय हो सकता है, वंयोकि जब पढाई शुरू होती हूँ तो 'बक्षरारंभ' किया जाता है, वाक्यारंभ' हीं। पहले हमें 'वर्समाला बताई जाती है, तदुपरान्त शब्द और उसके पश्चात्‌ वाक्य । विचाराभिब्यक्ति के विचार से यह क्रम उल्दा है। पहले वाक्य उसके बाद वावय के विभाजन स्वरूप पर्दा (दब्द-रूप) और तब “वर्ण? पर पहुंचते हैं । वर्ण दृब्द वाक्य शिक्षान्क्रम बे" ल सलल_०००११*०१०००००२ चाद्व द्ुव्द वर्ण भापा-क्रम. +२०००४०-००००००-३९४***०-००*« इसका कारण यही है कि हम मापा की रूघुतम इकाई वर्णो को ही मानते हैँ जोर एक विकसित मापा का अध्ययन करते हैं। अनेक आधुनिक शिक्षा-संस्थान भापा-शिक्षण का आरम्म 'वाक्‍्यों' से ही कराते हैं, तव 'शब्द! ओर उसके बाद वर, पर अधिक प्रचलित क्रम “अक्षरारंभ” या वर्णामाला' सिखाना ही है। वाक्‍्यों के अध्ययन में उत्तकी रचना, शब्दों (पदों) के स्थापन, संयोजन, उच्चारण में उतार-चढ़ाव, लहुजा, लय, वरू आदि सभी आ जाते हैँ । एक वावय ली जिए--- १९ वह आ रहा है। (४) पहले कर्ता फिर क्रिया पद का क्रम है। (7) 'वह' 'आरहा' हैं किन्ही विशिष्ट शब्दों के रूप हैं। (7) इस बब्दों को विभिन्न रूपों में, जावश्यकता के अनुसार परिवर्तित कर, संयोजित किया गया है--- वह वह (कोई परिवतंन नहीं) । बआारहा काना" क्रिया से बना हुआ । है होना क्रिया से बना हुआ । (५) इस वाक्य को कई प्रकार से बोला जा सकता है और बधघे में भेद होजाता है। (अ) वह आरहा है । सूचना मात्र । (व) चह आरहा है । केवल “वह” अध्य नहीं । (स) वह आरहा है ? प्रश्ववाचक । (द) वह मारहा है । जल्दी कया है, भा तो रहा है। ये सभी वातें वाक्य-अध्ययच्त में देखी जाती हैं, बतः इसे वाक्य- विज्ञान, रचना-विज्ञान, संरचना-विज्ञान बादि नामों से अभिहित किया जाता है। वाक्य-विज्ञान' अधिक प्रचलित है। ३/३/४/२ व/क्यों को यदि विभाजित किया जाए तो कई पद मिल सकते हैं। कही-कही एक पद का ही वाक्य होता है। बधा-- (3) जाभो । (7) बेठो । (॥) हाँ । अच्छा । ठोक (४) ना । न। नही । । जब तक पूरा अथ मिलता है त्वद तक एक पद द्वारा निर्मित वाक्य मी पूर्ण वावय होता है । कमी-कमी प्रसंग विशेष में मी एक ही 'पद' वाक्य का काम करता है । बाप थी, ए. में प्रथम उत्तोणों होंगे । रः में १( “में में पूर्ण अर्थाभिव्यक्ति है । ) पर पद बनाए जाते हैं, उनका संस्कार करना पड़ता है। हो सकता है किसी 'शब्द' का संस्कार कर पद! की तंज्ञा देने मे कुछ भी त करना पड़े । ऊपर के वाक्य में 'वह' में कुछ सी नहीं करता पडा, जबकि 'आरहा और 'है' को बनाने की आवश्यकत्ता पड़ी । आप इस प्रकार समझें । एक राज दीवाल बना रहा है, और दीवाल बनाने में पत्थरब्माटे लगा रहा १५ है--कुछ पत्थरों को उसे तोड़ना पड़ता है, कहीं एक छोटी चिप्पल भी रूगानी पड़ती है, परन्तु कुछ पत्थर जैसे के तैसे लगा दिए जाते हैं । परन्तु आपने देखा होगा कि राज सभी पत्थरों का परीक्षण करता है ओर उन्हें इधर-उधर कर देखता है, जब वह संतुप्ट हो जाता है तो दीवाल पर रख देता है। इसी प्रकार वाक्पों का निर्माश करते समय हमें समी शब्दों को तोलना पढ़ता है, कहीं कुछ बढाते-घटाते, रूपन्परिवरतित करते हैं और कहीं यह कुछ नहीं करना पड़ता, पर शब्द को पद का स्थान देने के पृव संस्कार आवश्यक है। इस अव्ययन को कुछ छोग 'शब्द-विज्ञान” कहते हैँ पर इससे अधिक उपयुक्त नाम है पद-विज्ञान'! अथवा रूप-विज्ञान' | शायद 'पद-विज्ञान] अधिक उपयुक्त नाम हो । 'पद-विज्ञान' और वाक्‍्य-विज्ञान' को बहुत से लोग एक साथ भी रखते हैं, और इनका अध्ययन एक साथ करते हँ--इतमें सम्बन्ध भी इतना गहरा और निकट का है कि अलग करने में अनेक अवसरों पर कठिनाइयां होती हैं । ३/३/४/३ पर्दा दव्दों से और शब्द ब्वनियों से निमित होते हैं । अतः व्वनियों का अध्ययव भी बहुत आवश्यक है। वध्वनि-विज्ञान नाम अति प्रचलित है । कुछ लोग इसे “मापा-विज्ञान से अलग समझते हैं--क्योंकि ध्वनि, मापा से नितान्त अलग है-एक साथन है दूसरा साध्य, एक इन्द्रिययोचर है दूसरा मनन्स्रम्बन्बित । वेसे भी व्वनिब्विज्ञान में एक ध्वनि, व्वनियों से निमित भब्द, शब्दों से निर्मित वाक्य, वाकयों से निर्मित परा आदि सभी उच्चरित होते हैं, अतः उच्चारण के बन्तर्गत भाषा के सभी अवयव आजाते हैं क्षत: इसे 'भापा-विज्ञानन] का अंग कैसे माना जा सकता है--घ्वनि-विज्ञान”! अलग है, मापा-विज्ञान' अलग | आजकरू सभी विकसित विश्वविद्यालयों में मापाब्विज्ञान तथा घ्वनि-विज्ञान के अलग-अलग विभाग हैं, अलग-बलग अध्ययन व्यवस्था तथा अलग-अलग डिग्रियां । सम्बन्धित तो दोनों हैं ही परन्तु दोनों का अन्तर इतना अधिक है कि इन्हें मलग-अलूग विज्ञान माना उचित ही है। अन्तर्राष्ट्रीय परिपदो में 'भापा-विज्ञान! की परिपद्‌ अछूग है, 'ध्वनिश्विज्ञान' की अलूग | पर हमारे देश में अभी तक दोनों साथ चल रहे हैं और प्रायः यही कहा जाता है कि भापा-विज्ञान का एक अंग व्वनि-विज्ञान मी है पर ऐसा कहते समय हम व्वनि मात्र पर ही दृष्टि रखते हैं और उच्चारण की सामान्य प्रक्रिया पर ध्यान देते हैं--शगब्द, वाक्य आदि के उच्चारण तक नहीं ले जाते। अत: इस पुस्तक में मी व्वनि-विज्ञान उस्ती सीमा के अन्तर्गत रखा गया है, ताकि पाठकों को श्रान्ति न हो । व्वनियों का भध्ययन बहुत्त महत्त्वपूर्ण बौर उपयोगी होता है--पर द्ोता भी बहुत कप्ट और परिश्रम साव्य है। ब्वनियों के अध्ययन में आजकल अनेक मजीनों से भी सहायता लो जाती है, श्रवर न्द्रिय आदि का उपयोग भी बड़ी २६ सावधानी के साथ किया जाता है, मृंखाकृति पर भी ध्यान रखना पड़ता है। ध्वनि-विश्लेषण' अपने आप में एक बड़ा विज्ञान है । हमारे प्रारम्मिक पाठज्नों को तो घ्वनि-विज्ञान नाम याद रखते हुए इतना जानना क्लाफी होगा कि इसमें घ्वन्ियों का अध्ययन किया जाता है -उच्चारण ऊँसे होता है, परिवततेन कसे होते हैं, विविध भाषाओं में ध्वनियों के उच्चारण का क्या क्रम है, आदि । ३/५ भाषान्शास्त्र के अनच्तगंत कई प्रकार के बध्ययन हैं, इसके कई अंग हैँ मोर उनके अध्ययन की विविध पद्धतियां हैं, और ये समी एक दूसरे से इत्तने सम्बन्धित हैं कि अनेक अवसरों पर इन्हें अलग करना कष्टसाध्य होता है। | तुलनात्मक (समसामयिक) भापा-अध्ययन ऐतिहाप्िक (इतिहास पक्ष) + “गे | वर्णनात्मक (एक भाषा का) | सामान्य [संद्धान्तिक पक्ष) -- वीं का अ5ठ *। वाक्य का अध्ययन (वाक्‍्य-विज्ञान) | न - पद का अध्ययन (पद-विज्ञान) | - ध्वनि अध्ययन (ध्वनि-विज्ञान) | घ्वनि-विज्ञान ३/६ अमी तक हमने 'भापा' के उत्त पक्ष पर ध्यान नहीं दिया है जो भाषा का घ्येय होता है, जिसका प्रकाशन करने हेतु ही भाषा का प्रयोग किया जाता है, जो हमारे सामाजिक जीवन का केन्‍्द्र-विन्दु है।यह है भाषा का अर्थ पक्ष । 'भापा' का सम्पूर्ण वेमव ही इसलिए है कि अमीप्सित अर्थ ग्रहण किया जा सके । यदि हम कुछ कहे ओर वह 'कहना समझा ते जाए तो हमारा कहना निरथथंक होगा, व्यथे होगा । अतः भाषा का अर्थ-पक्ष बहुत महत्त्वपूर्ण है। किन्तु क्या यह 'मभापा-विज्ञान' का एक अंग भी है? यह प्रइन विचारणीय है। भाषा का उच्चरित स्वरूप इन्द्रियों से सम्शन्धित है, ओर उसका अर्थ मन से सम्बन्धित है अतः दोनों को अलरूग करने को प्रवृत्ति है, ओऔर बहुत से विद्वान अर्थ-विज्ञान को भाषा-विज्ञान के अन्तर्गत नहीं रखते। एक प्रकार से मापा-विज्ञान में केवल दो ही बातें रह जाती हैं (१) पद-विज्ञान तथा (:) वाक्य-विज्ञान । अन्य दो (१) ध्वनि-विज्ञान भोर (२) भर्थ-विज्ञान अलग स्थान रखते हैं। [ ध्वनि-विज्ञान- भलग विषय रि पद-विज्ञान रे (पा-विज्ञा । न्‍वि भमापा-विज्ञाव | वाक्य-विज्ञान | भापा-विज्ञान (वाक्यपदीय) [ अर्थ-विज्ञान-अलग विपय ३/७ भापा-विज्ञान के बन्तगंत और भी कई विषय आते है, जैसे बोली- विज्ञान, लिपिब्विज्ञान, मापा-मगोल, प्रागेतिहासिक खोज ( भाषा को आधार २७ मानकर ) कोश-विज्ञान, सुर-विज्ञान, क्षेत्र-पद्धति, जाति-भाषा-विज्ञान, ध्वनि- विश्लेषण, बोली-विकास-विज्ञान आदि | पर अभी हमारे वर्तमान पाठक इन विपयों को जानने के लिए कुछ प्रत्तीक्षा करेगे, और केवल इतना जानकर ही समन्‍्तोप करेंगे कि भाषा-विज्ञान के अन्तर्गत उच्चारण, पद-विन्यास, रचना आदि का अध्ययन किया जाता है | ३/८ अब भापा-शास्त्र को एक परिभाषा बनाने की चेष्टा करें :-- (१) भाषा का वंज्ञानिक या शास्त्रीय अध्ययन ही भाषा-विज्ञान या भाषा-शास्त्र कहा जाता है | (२) भाषा-शास्त्र अध्ययन की वह वंज्ञानिक क्रिया है जिसमें विशिष्ट अथवा साप्रान्य भाषा का ऐतिहासिक, तुलनात्मक और वर्णुतात्मक दृष्टि से अध्ययन किया जाता है | (३) भापा-विज्ञान वह विज्ञान है जिसमें भाषा के उच्चारण, पद- तिर्माण और वाक्य-संरचना का विधिवत्‌ अध्ययन किया जाता है । (४) भाषा का सर्वा गीण विधिवत्‌ अध्ययन ही भाषा-विज्ञान है । (५) भारत का वाक्यपदीय' ही आधुनिक भाषा-विज्ञान है। कई प्रकार से इस विपय को परिभाषित किया जा सकता है परन्तु इसका अध्ययन भाषा के अगों से सम्बन्धित है । इसके अध्ययन की सीमाओं तथा प्रणालियों को देखकर इसका नामकरण भी अनेक प्रकार से किया जाता है-- (१) वाक्यपदीय (२) भाषिकी (३) भाषा-विज्ञान (४) भापा- शास्त्र (५) भाषा-तत्व (६) शब्द-कथा (७) तुलनात्मक भाषा- विज्ञान (०) तुलनात्मक व्याकरण (६) पद-विद्या (१०) निर्वेचन- शास्त्र । अन्य भाषाओं में भी इस शास्त्र के अनेक नाम है। अ ग्रे जी में इसे -- (१) लिग्विस्टिवत (२) फिलोलोजी (३) कम्पैरेटिव फिलो- लॉजी (४) सछोटोलॉजी (५) सलौपौलॉजी आदि नामों से अभि- हित किया जाता है । ३/६ एक प्रन्‍्त पर और विचार करञें। भापा-विज्ञान के प्रसंग में व्याकरण- का नाम बहुत आता है | कुछ लोग भापा-विज्ञान को व्याकरणों का व्याकरण कहते हैं, कुछ 'ुलनात्मक व्याकरण” और कुछ लोग 'विवरणात्मक व्याकरण का »योग करते हैं। वास्तव में 'भाषा' के प्रसंग श्द में 'व्याकरण' का बहुत महत्त्व है। व्याकरण में भी हम शब्द, उतके रूप, पद-तिर्माण, वाक्य-रचना आदि पर विचार करते हैं भौर भाषा-विज्ञान में भी हमारे अध्ययन के विषय कुछ ऐसे ही है । तत्र अन्तर क्‍या है ? निश्चय ही अन्तर अध्ययन की विधि में है। व्याकरण के द्वारा क्या होता चाहिए! इसका पता लगता है, और भाषा-शा्त्र बताता है कि कया हे । व्याकरण कहता है ऐसे हो', भाषा-विज्ञान कहता है ऐसा है! । एक निर्देश करता है, दूसरा वर्णन करता है, इसीलिए कुछ छोग वर्णतात्मक भाषा-विज्ञान को ही वास्तविक भाषा-विज्ञान की संज्ञा देते है। भाषा विज्ञान में-- क्यो, 'कर्ब, 'कसे, किस प्रकार” आदि प्रह्नों पर भी प्रकाश डाला जाता हैँ | व्याकरण 'शुद्ध' भथवा 'भशुद्ध' पर प्रकाश डालता है, भाषा-विज्ञान में शुद्ध-अशुद्ध कुछ नही है--जो है वह है । कंसे है ? क्यो है? इन बातो को जानना भी इसी विज्ञान के अन्तर्ग॥ है। पर इसमें सन्देह नहीं कि भापान्शास्त्र के अध्ययन में व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है, कम से कम उसकी ओऔपचारिकता से तो परिचित होना ही चाहिए। बसे भाषा-विज्ञान व्याकरण का निर्माण करता है। किसी भाषा का अध्ययन करने के उपरान्त भाषा-विज्ञान उस भाषा विशेष के घ्वनिग्राम, पदग्राम, रचना-नियम भादि प्रस्नगों पर प्रकाश डालता है, और इनका एक ऐसा रूप प्रस्तुत करता है जिसे व्याकरण कहा जा सकता है । सक्षेप में हम कह सकते है कि भाषा-विज्ञान व्याकरण की बपेक्षा अधिक व्यापक है और वह एक या अनेक भाषाओं का ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अध्ययन करते हुए उनके विवरण देने की क्षमता रखता है तथा भाषा की सामान्य प्रवृत्तियों की मीमांसा भी करता है। ३/१० यों भाषा-विज्ञात का सबंध अन्य अनेक विषयो से है। कहने को तो वह उच्चरित भाषा का अध्ययन करता है परन्तु लिखित भाषा भोर साहित्य भी उसकी सीमा के अंतर्गत आते है, भाज का सांख्यिकी अध्ययच तो साहित्य से ही सबधित है | ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अध्ययन मे भी साहित्य- ज्ञान की अपेक्षा है। भाषा के दो पक्ष होते है--एक भौतिक और दूसरा मनो- वेज्ञानिक । 'मौतिकी अथवा 'फिजिक्स! तो आजकल घ्वनि-विज्ञान का आधार ही बन गया है। आजकल के यत्न, विश्लेषण की क्रिया सभी भौतिकी पर आधारित हैं। इसी प्रकार मनोविज्ञान का भी भाषा से तिकट संबध है, जब तक सोचते नही तब तक बोल नहीं सकते, और जब तक ध्यान नही देते तब तक समझ भी नहीं सकते । 'वोलना' और 'समझना' दोनो के मूल में 'मन' है । मनोविज्ञान के साथ मानव विज्ञान भी एक सबधित झास्त्र है । इतिहास और भूगोल से भी भाषा-विज्ञान के अध्ययन में सहायता मिलती हैं। माषा-मूगोल और ऐतिहासिक अध्ययत तो इनसे ही संबंधित हैं। जसे 4 न को जानना, उसकी प्रवृत्तियों को समझना आवश्यक होता है, इसी प्रकार मानवी-शरीर-रचना को भी जानना छाभकारी होता है, विशेषकर उच्चारणोंपयोगी अवयवों को। पाठालोचन, पाठ विज्ञान, सांख्यिकी, गरितत, संस्कृति, त्कंशास्त्र, दर्गदन, अथशास्त्र, राजनी ति, धर्म, समाज-शास्त्र, नुविज्ञान आदि भी माषा-विज्ञान से संबंधित हैं। सच तो यह है कि समाजशापघ्त्रीय विपय जिनमें “भाषा भी एक है, एक-दूसरे से बहुत संबंधित हैं । आपने इस पाठ में पढा-- (१) भाषा-अध्ययत की दिशाएं । (२) भाषा-शास्त्र के विविध अंग | (३) भाषा शास्त्र अथवा भाषा-विज्ञान की परिभाषा । (४) भाषा-शास्त्र का अन्य विषयों से संबंध । ओर अब इन प्रश्तों के उत्तर भी दीजिए-- (१) भाषा और भापा>्ञञास्त्र' का अन्तर बताइए । (२) 'भाषा-शास्त्र' में किन २ बातों का अध्यवन किया जाता है? प्रत्येक का थोड़ा-धोड़ा विवरण लिखिए। (३) 'भाषा-विज्ञान' की परिमापा लिखने का प्रयास कीजिए । भाषाओत्रों का वर्गीकरण कि ल»ैी च ् प्स्सस्रललल्ललसनम्स्फपपेफेेमपसतफलललेम मेक फ तत००प०जममक.. -““?9त?#त7-+++_ ४/१ आप किस कक्षा में पढते है ? द्वितीय वर्ष में। भौर आप ? तृतीय वर्ष में | और आपका छोटा भाई ? हाई स्कूल में। आपकी कक्षा में कितने विद्यार्थी हैं? तीस । और आपकी में ? पचास । आप सब विद्यार्थी हैं, परन्तु आपका कक्षाओं में वर्गीकरण किया गया है। आपने फलवालों को देखा होगा ! फलों को छांट-छांट कर अलग करते हैं। ये आम किस भाव हैं ? एक रुपया किलो । भौर ये ? सवा रुपया। आमों को भी वर्गीकृत किया गया | व्यक्ति और वस्तुओं का वर्गीकरण करना सुविधा के हेतु होता है। भलग- अलग कक्षाओं में बांद फर पढाई अच्छी होती है, भलंगनअलूग ढेरियों में रख कर पैसे अच्छे मिलते हैं। भाषाओं की संख्या भी बहुत है, यदि सबको इसी प्रकार छोड़ दिया जाए तो उनका अध्ययन किस प्रकार हो, उनमें संबंध किस प्रकार स्थापित हो, उनको व्यवस्थित कैसे किया जाए। अतः भाषाओं का भी वर्गीकरण किया जाता है। यह वर्गीकरण कई प्रकार से हो सकता है। विद्यार्थियों का वर्गीकरण उनकी अवस्था के अनुसार, योग्यता के अनुसार, भाषा के अनुसार, ऐच्छिक विषयों के अनुसार, खेल के आधार पर और अन्य किसी भी आधार पर किया जा सकता है। फलों को भी छोटे-बड़े, मोटे-पतले कच्चे-पक्के, हरेग्पीले, कड़े-पिछपिले भादि आधारों पर किया जाता है। भाषा वर्गीकरण के भी कुछ आधार हो सकते हैं । ४/२ सारे विश्व में भाषाएं बोली जाती हैं-जहां मनुष्य हैं, वहां भाषाएं हैं। स्थान-स्थान पर भाषाएं हैं। स्थाव के आधार पर भाषाओं का वर्गीकरण संमव है । मारत की भाषाएं भारतीय, नेपाल की भाषाएं नेषाली, जापान की जापानी, चीन की चीनी, रूस की रूसी और अरब की अरबी । वर्गों को भी भाषाएं होती है--सुनारों की भाषा, लुहारों की भाषा, नाविकों की जहाजी भाषा और विद्याथियों की कॉलेजीय भाषा। प्रकृति के आधार पर भी भाषाएं वर्गीकृत की जाती हैं-कोमल भाषा, कठोर भाषा, मर्दाती भाषा, जनानी भाषा, पेंती भाषा, दब्बु भाषा। रचता के आधार पर भी यह संभव है--समासों की भाषा, प्रत्ययों की भाषा, विभक्तियों की भाषा भादि | पर भाषाओं का वर्गीकरण करते समय कुछ विस्तृत हष्टिकोण अपवावा पड़ता है, 8 #्> ओर चेष्टा इस बात की करनी पड़ती हुं $कहमार वगाक्रछ्त का दावार जलाकमणवीक- गई सर वर्गों बम डे पूने तो उस वर्गीक्त रण का पुत्र: गरदे दायरे बनाए जा 223 औ 225० हक अीमक जज कक ली अल अल पड नम ४० मल मा: ए्‌ अमान्याक-ममय०,. बुनगान प पा 7 वर्गीकरण गम... नवयाक- अत “के अमन "नर पकक राम: 7 अमन किक, सकत हू | उदाहच्रु दः किए जब पापादोों के दर्गीकररा की दात सुलह हुई तो भारत > का विका दयारप #-+-यबह 'जआिआ कफ ० चमक आना ९.-या कक सर ण्क दा अल कक अन्‍य अन्न, प्पा गया पक स्व भारत कोर योरप की माषातों को मिलाकर एक दब हा बग दंदाया गया जस्स अमल क-कप- अन्य कण-> जे की. अिकमन-नमनकल एक परिदा ऑम्यंक. ्धान्|-+ अभााकी का मी न नजव 4सम्मयाका या विकायकन कल “पाना नरम, वर वाक * डर पा आज न्ज्कः मापाओं का एक परिवार कहा गया ओर नाम दिया भा रत-यरोपीय रवार दर ला अन्‍्मनानअ्मकक पद्द्ध जज द्गा अअमम्याब्मक--->नमक ज्यााकक+->करकनक, किम एु >- “पान उ्पृ पक रदा जिकमाओई 5 “ाप अलमिलते०>.... अल सकज-ा+ “कुंच; आयकन्यमम्मपुक इरान टविनाओा बहा हैं-इसे पत्र: दर्गोक्कषक्र कर तो एक उपपरिवार निकलेगा-मारत-ईरानी ३ व्वयमक- कम सनक. ता ००-ंबंकरमनला क्ष्या हद न 7 “पिकप-ओ लक - शा प्र्क्ल बम दीन. जिकीक ७4 झार इदुदा। पिर विभाजित किया ठो “दा वर्म ददगा | इं बकार मापातजञ्ञा का परिधि छोटी-छोटी हो सकती ह। छम्वा प्रकार य॑ दि किसी दर्ग को | ३ 7४४२ हर अल ऑणा-प- ' चल ँ ७.->-९००००७-ननक>-मन्‍कक एं दाता ता दाग्रात्नक रा सावदव कंहा जाव ता उसका प्‌ 4 | न बनेगा दिमरि >> प्रदधा प्व्च ते स्व पिला जी 205००» “००० प्रचा ब्न्‍क पटना पल अका टपदग बंदगा (द््क्ति प्रधाद इसक पश्चात द ह्म्‌ ली विभक्ति-प्रयान' और दान >+ 3». आन मम नम नीत क०--नन किक जनम ०० दीप >> >> जब. >ज नल टपमनबा प्रकार वन्य इसके उपरान्त व्यवहित्त बह पुद्धा विभक्ति-प्रधान और इसी प्रकार वन्य | आ पा 2० प्य बट: मसल गीकन जल बज आवार ड नमक ्ि मद्ध ख् दघ दा रापाका का वभाइद करद के कइ आावार हू परत्तु दा प्रसिद्ध ६-० काइति के हावार पर कोर परिवार के आधार पर । ४/३ आाह्ृति के काबार पर किए गए वर्मीक्रण को आाहुतिमूलक इंध वगाक्रर्त का ह्पात्मक, रचनात्मक, रचनात्मक, दाक्यमूलक बादि नामों से भी पुकारा जाता है। इस वर्गीकरण में भाषा की ब्ाकृदि या उसके रूप पर ध्यान दिया जाता है कि शब्दों के रूप किस प्रकार दनते हूँ। पहले दताया जा चुका है कि वाक्षयों में प्रयुक्त करने से पहले झब्दों हो विदाया' जाता है 'उस्कृदा' क्या जादा है, तोला' जाता है-ठमी उन्हें रे ? ५४ शक /ज, £| ब्ब्म्नजै | ू अं शक जा] प्र ्र कम... बन. प्राय: ४ अब, का ७ अं | गा, - हि. को स्का च किक, वाद ्ःाः उक्तदे हूँ । इड्लोलिए दुछ लोग इस वर्गीकरण को 'वाक्यमलक' की ऋहते हैं, पर < ञ्छ्‌ ७ श्र + | । का । कप क्र च्ष्टू $+ 5 ट (५ रु कऊाधिक्ना धदान उालत3 डर उजतु-- 2 पर दिया अदीकीशीक मय. मल... के... ०2 जैतर: उथाद बुच्दा का अआाह्लात पर दया जाता हूं, इद्सीपरें दाक्यों को काह्नति जब की लक लए 22 सडक पर ब्् जि बिक लिए “ही एज पर हल 258 बा कक अन- जल सजा नन्क 5 अपन टन... सनकी“... नकर.>्ाममनम्यनिमाक,. स्‍ममाक भाढ़म-पालपामाक, व्गः मन च्यां किक ४६ ६४७ +६*:३१ प्‌ | ३ ता(< ५ ज््‌ दे पु एड: 53१ 5:९ ९ | द्ाचद व्यापक्त हृ | कु क््न्जिजा िमकप> अकनन्‍-न्‍न्‍जमन्‍ाक, 2०८ 2 52४8] आय शशकलसप जी :23- है कृष्ण #म्प | और [5 ७३३ $े। ठप दन मे कई अकार का क्रिया करनी पड़ती हैं- ३२ (।) कभी हम दो शब्दों से समस्त पद बनाते है-- माता-पिता, 'राजमहल' (7) अन्‍य अवसरों पर शब्दों के भागे पीछे या वीच में कुछ वृद्धि की जाती हे-- विमाता, मातामही, मु पंशि (0)) विभक्तियों के योग से भी पद बनाए जाते हैं-- रामका, रामस्थ प्र कभी ऐसा भी होता हैं जब मूल शब्द में कोई अंतर नहीं किया जाता और अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति के छिए कोई अन्य शब्द पास में लगा दिया जाता ' हैं, या शठ्दो को इधर उधर कर दिया जाता है -- त लइ--वह भाता हैं (वर्तमान काल) त लइ लिभाव- वहू भाया (भूत काल) इस प्रकार भाकृति के संबंध में दो क्रियाएं लक्षित होती है--- (१) जब शब्द को विकृत किया जाता है, तथा (२) जब शब्द का रूप ज्यों का त्यों रहता है । इसी लिए इस वर्गीकरण को कुछ लोग “विकारी' और “अविकारी' दो भागों मे रखते है, कुछ 'योगात्मक ओर “अयोगात्मक्र' कहते हैं, और कुछ 'सावयव' तथा 'निरवयव' । ४/३/१/२ योगात्मक वर्ग की भाषाओं में किसी प्रकार का योग होता है। यह योग दो प्रकार के तत्वों का होता है जिन्हें सुविधा के लिए (१) अर्थतत्व, और (२) संबधतत्व कहा जाता है। यद्यपि दोनों की सत्ता समान है, परन्तु अ्थतत्व को कुछ लोग मूल शब्द भी कहते हैं। जब हम “लड़का दाद कहते है तो हमारे सामने एक भाकृति आ जाती है, पर जन्न हम “लड़की” कहते हैं तो एक भनन्‍्य भाकृति सामने आती है। यह क्यों हुआ--फैवल इसीलिए न कि 7 के स्थान पर "* कर दिया । देखा आपने संबंध-तत्व का प्रभाव | इसलिए दोनों तत्व महत्वपूर्ण हैं। बात इतनी ही याद रखें कि वाक्यों में किसी शब्द को स्थापित करने के पर्व हमें उस शब्द को एक आकृति देनी होती है, उसका रूप-निर्माण करना पड़ता है, और यह रूप निर्माण “अर्थततत्व” एवं “सबधतत्व” के योग से होता है। कभी-कभी यह भी देखा जाता है कि संबंधतत्त्व ($' होता है, परल्तु होता अवश्य है; यह दूसरी बात है कि यह हमें दिखाई दे अथवा नहीं । ३४ निन का कुछ स्वतंत्र भत्तित्व रह गया है-ये तो सब मिल गए हैं भौर कुछ संकेत मात्र रहे हैं-पहले शब्द का नत” दुपरे का 'ल! तीसरे का 'निन! (किसी प्रकार पूरा) रह गए हैं। दूसरे वर्ग में अपेक्षाकृत अधिक अश दिखाई देता है । एक में योग पूर्ण होता है भौर दूसरे में केवल आंशिक । ४/३/१/१/३ विभक्ति-प्रधान भाषाओं के भी दो उपवर्ग दिखाई देते हैं-- (१) अन्तम्‌ खी विभक्तित्प्रधान । (२) बहिम्‌ खी विभक्तिश्रधान । (१) बतमृ खी में संबंध तत्त्व शब्द के मदर काम करता है और शब्द को अनेक रूप देता है । 'कतल' धातु को देखें-- कातिल-कत्ल करने वाला । ह॒त्यारा कत्ल-ह॒त्या । मकतृल-जो कत्ल किया गया है । इस प्रकार की भाषाओं में अरबी का प्रमुख स्थान है । (२) बहिम्‌ खी में संबंध-तत्व बाहुर काम करता है-- रामस्य-राम का रामेण-राम से रामे-राम में । ऊपर के दो समानार्थी उदाहरणों में विभक्ति का योग बाहर साफ दिखाई दे रहा है, पर एक में उसका संयोग मूल शब्द या अथ तत्त्य के साथ ऐसा हुआ है कि वहु उसका अग ही वन गया है, दुसरे में संबंध तत्त्व बाहर अलग दिखाई देता है। इसीलिए पहले को संयोगात्मक' और दूसरे को 'वियोगात्मक' कहते है। पहला उदाहरण संस्कृत भाषा का है और दूसरा हिंदी का । तब आप “योगात्मक' (या संयोगात्मक, सावयव, संचयात्मक विकारी) वर्ग को इस प्रकार याद करें -- [. पूर्वप्रत्यय , परप्रत्यय . मध्यप्रत्यय , सर्वप्रत्यय ] -7 प्रत्यय- घाव + योगात्मक. > जग . भशतः . भतमखी ] संहित (2. बहिम्‌ सखी | च्यवहित्त -“ संमात्तन्प्रधाच कक... 32 ७०% . '> (४0 (>> |. ॥ //“7”“% -- विभक्ति-प्रधान ३५ ४/३/१/२ पर अभी अयोगात्मक ( निरवयव, निर्योगी, एकाचू, एकराक्षर, अविकारी ) भाषाओं के बारे में कुछ नहीं कहा । इस प्रसंग में इतना ही याद रखना काफी होगा कि शब्दों के रूप में कोई विकार नहीं होता--किसी प्रकार का योग नहीं होता । संबंबब्तत्व के हेतु तीन-चार प्रकार की क्रियाएं की जाती हैं [ ता लेन--बड़ा आदमी ( लेन ता--भआादमी बड़ा है (२) लहजे या सुर के द्वारा--सभी भाषाओं में देखा जाता है ( त्सेन--चलूना | सेन लित्ोन--चला (१) शब्द-क्रम के द्वारा (३) निपात या संवंधनब्युचक शब्दों के द्वारा इसका सर्वोत्तम उदाहरण चीनी मापा बताई जाती है । शब्दों की ऐसी स्थिति में व्याकरण का क्या मूल्य होगा यह सहज ही समझा जा सकता है | पद-भेद की तो कोई ग्र॒ुजाइश ही नहीं है, एक ही शब्द सब" कुछ बन सकता है। इसी कारण चीनी भाषा बहुत कठिन भी है । अब यह प्रयाप्त अवश्य किया जा रहा है कि चीनी मापा को आसान बनाया जाए। जापानी को तो आसान बनाने के कई प्रयोग सफल हो चुके हैं। इस व्ये में सूडान, अनाम आदि की भाषाए' भी बाती हैं। अतः मापा की आक्ृति के हिसाब से दो बड़े वर्ग हुए-- (१) योगात्मक । (२) अयोगात्मक । अआकृतिमूलक वर्गीकरण का यही संक्षिप्त विवरण है । इस वर्गी- करगा में हिन्दी का क्‍या स्थान है यह दिखाया जा चका है-- व्यवहित वहिमु खी विभक्ति-प्रधान योगात्मक भाषाओं में से एक । यों ध_्मझिए- -- प्रत्ययश्प्रधान -- योगात्मक-२ -“ समासनप्रधान -- भंतम्‌ खी भापा , -- विभक्ति-प्रधाव -+ “- संहित । -- वहिम्‌ जी-3| ! रु - व्यवहित -- अयोगात्मक (हिन्दी) (हिन्दी के अतिरिक्त इस स्थात पर अच्य भाषाएं भी हैं। अत: एक मापा कहां गया ।) ३६ ४/३/२ भापाओं की आकृति तो हीती है पर मापाविदों ने उनके परि- वारों की भी स्थापना की है। जिस प्रकार परिवार में एक मुखिया होता है भौर उसकी संतानें होती हैं तथा पौन्र, प्रपोत्न आदि से बंश बढ़ता रहता है, हसी प्रकार एक मूल भाषा कई अन्य भाषाओं को जन्म देती है और इन “भन्य भापाओं' के द्वारा पुन अनेक अन्य भाषाओं की उत्पत्ति होती है मौर इप्त प्रकार यह परिवार बढ़ता रहता है। पर एक वात बवश्य है--परिवार में मात्ता-पिता दोनों भपेक्षित होते हैं और उनकी संतति भाई-वहिन के रूप में होती है, भाषाओं में “माँ होती है बाप नही; बहिने होती हैं, भाई नहीं । यह सब इसलिए है कि 'भापा' शब्द स्त्रीलिंग है अतः पुरुष का अस्तित्व कल्पना» तीत हो जाता है। एक वात और भी है--मापाएं जन्म नहीं लेती, विकसित होती है और अपनी पूर्ववर्ती भाषा को प्रायः समाप्त कर देती हैं, उनका साहित्य रह सकता है परन्तु बोलचाल में उनका अस्तित्व नहीं रहता। यह भजीब परिवार हैँ कि संतान अपनी जन्मदातू की स्थानापन्ष बन जाती है और अपना हृढ स्थान बना लेती है । भाषाओं के परिवार की कल्पना बहुत पुरानी नहीं है। जब भाषा-झ्ास्त्रियों ने देखा कि कुछ भाषाओं के शब्द और उनकी ध्वर््ियों में साम्य है तो उन्हें एक परिवार का मानता सुविधाजनक प्रतीत हुआ, इससे ये भाषाएं संबंधित हो गई और उनकी पूव॑तर्ती भाषाओं अथवा भाषा का पता लगाता, उसका रूप स्थिर करना कुछ सरल हो गया । ४/३/२ नीचे लिखे शब्दों पर ध्यान दीजिए - पिता फादर फातर पिदर माता मदर मृतर मादर भ्राता ब्रदर ब्र्दर बिरादर (०. /व्म्कमी ०. /-न्मणटी २ जन... धन्य संस्कृत अग्न जी जम॑न फारसी (हिंदी ) कितना साम्य है-- ध्वनियों का और अर्थ का भी । यदि इन भाषाओं को हम एक ही परिवार की कहें तो अनुचित नहीं होगा । इस प्रकार दब्दों को देखकर, उनकी ध्वनि और अर्थ की सम्रानता जानकर भाषा-शास्त्रियों ने भाषाओं के परिवार स्थापित करने की चेष्ठा की और विश्व की भाषाभों को विविध परिवारों में रखने का प्रयास किया | चेष्टा करने पर यह भी स्थापित किया गया कि इनकी मूल भाषा एक हो सक्ती है। इस प्रकार का वर्गीकरण ही पारिवारिक वर्गीकरण कहलाता है। इसके कुछ और भी नाम हैं, जसे ऐतिहासिक वर्गीकरण, उत्पत्तिमुलक वर्गीकरण, वंशानुऋमिक वर्गीकरण । परन्तु अधिक प्रचलित नाम पारिवारिक वर्गीकरण है। पारिवारिक वर्गकिरण की बात तब चली जब योरुप के विद्वानों को इस बात का पता लगा कि ग्रीक ३७ और लैटिन, संस्कृत बौर पुरानी फारसी में बहुत सी समानताए हैं। ऐसा क्यों ? उनका उत्तर था--एक हो परिवार की होने के कारण । ४/३/४ पारिवारिक वर्गीकरण कुछ इस प्रकार से हुआ-- (१) भारत-यूरोपीय परिवार--उत्तर मारत तथा योरुप की भाषाएं । (२) इ्रविड-परिवार--भारतवर्प के दक्षिण की भाषाएं । (३) एकाक्षर अथवा दीनी परिवार--चीन, तिव्वत, थाईलेड भादि की भाषाएँ। (४) सेमेटिक परिवार--अरबी आदि भाषाएं । (५) काकेशस परिवार--सोवियत संघ की जाजियन आदि भाषाएं । (६) भारतेय या आस्ट्रिक परिवार--इंडोनेशियन, मृ'डा आदि भाषाएं । (७) यूराल-अल्ताई--फिनिश, तुर्कों आदि भाषाएं । (८) हैमेटिक- काप्टिक, सोमाली, खामीर, आदि भाषाएं । (६) बंह--(बांदह) स्वाहिी, जूलू, काफिर, आदि भाषाएं । (१०) बुशमेन- नामा, खोरा भादि भाषाएं । (११) रेड इंडियन-- चेरोकी, मय आदि भाषाएं | इस प्रकार क्नेक परिवार है। कुछ नए परिवार भी अस्तित्व में आ रहे हैं ) कुछ का परिवार अभी निश्चित नहीं हुआ है और कुछ परिवारों का पुननिरीक्षण कतिपय भाषाओ के वर्गीकरण को इधर-उधर कर रहा हूँ । इस स्थान पर यह इष्ट नहीं हे कि सभी परिवारों की विशेषताओं का विवरण उपस्थित किया जाए | किन्तु हमें इस बात की जानने की आवद्यकत्ता हैं कि मारत में किन-क्तिन परिवारों की भाषाएं बोली जाती है । ४/२/४/ १ भारतवर्ष मे बोली जाने वाली भाषाएं इस प्रकार हैं;--- (१) भारत-पूरोपीय परिवार के मारत-ईरानी उपपरिवार से संबंधित नीचे लिखी शाखाए । (६) ईरानी--फारसी । (() दरद--शीना, काश्मीरी, कोहिस्तानी । (0) भाय--हिंदी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि । (२) द्रविड़ परिवार--चार मुख्य भाषाएं । तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़ । (३) चीनी परिवार-- आसाम-वर्मी शाखा-तागा आदि । तिव्वत-हिमालयी शाखा-लद्वाखी जादि । (४) आस्ट्रिक या भारतेय परिवार-- आस्ट्रो-एशियाटिक-क्ोल, शावरी भादि। (५) अनिश्चित परिवा र-- अ दमानी आदि । 4. इस प्रकार हमारे देश में कई परिवारों की नायाएं बोलो जाती हैं इनमें दो परिवार प्रमुख हैं। इचका सक्षिप्त विवरण उपयोगी होगा । छुछ द्रविड़ नापाजों को एक मानकर सारतोय परिवार की बात ऋहने हैं। वंसे दोनों परिवार के ब्ाघुनिक रूपों पर जंस्क्ृत का प्रभाव इतना छाबा हुआ है कि इन कल्पनाओं को बल मिलता हुँ! पर सामान्यतः इन दोने अलग माना जाता है । ४/३/४/२ द्रविइ-मायाएं अपने उत्तम साहित्य के लिए अ्रचिद्ध हैं। तमिल भाषा का साहिंत्व तो बहुत ही प्राचीच बार समृद्ध बचाया जाता है तथा उसको तुलना संच्छत भाषा से की जादी है। नैंने इत दये की एक विभाषा तुलु का अध्ययत किया था। द्रविड़ नायाज्ञों के पंडित कॉल्डवेल ने इसे उन्नत भापाजा में माता हैं। द्रविद-परिवार क्री नापाएं प्राव: प्रत्वव- प्रवात भाषाएं हैं। प्रविज् भाषात्ों में संबोग बडा स्पष्ट होता है । कन्नढ़ का उदाहरण देखें सेवक-ढ (सेवर्कों से) सेवक-रनु (सेवकों को) सेवक-रिंद (सेवकों से) सेवक-रिये (सेवकों के लिए) आदि। इसके निर्जीब पदार्थ नपु सक्षलिभ में और चपु सकलिंय का बहुबंचन प्रायः वहीं होता । रूपों क्षी बधिकृता होती है। वदि इस परिवार को वर्यों में बांदा जाए तो चार वर्ग हो सकते हैं-- (१) बाहरी वग--ह्राहुई (कछात में बोले जाने वाली) (२) आंध्र वग- तंलग्ु (३) द्रविड़ वर्गय--तमिल, मल्यारूस, तुश्तु, कन्वइ । (४) मध्यवर्ती वर्ग-गोंडी, कुई, कुरुख बादि ४/३/४/३६ मारत-न्यूरोपीय परिवार का बच्ययन कुछ विस्तार से करवा होगा क्योंकि 'हिंदी! इसी परिवार की एक भाषा है। इस परिवार का रूप इस प्रकार है-- मारत-यू रोपीय परिवार | [.-|--यऑय॒॒॒ | | केंट्रम वर्ग अतम्‌ वर्ग | | | | कह लिनिनिशिशिकक लि क्ैल्टिक | प्रीक (हेलेनिक) | तोखारी | | | | जमेंन इटेलियन.. अल्वेतिबन | आर्मनियन बाय (ट्यूटानिक).. (लैटिन) | (भारत-ईरावी) सलेवोनिक | कक | | ।ै ईरानी दरद बावे ३६ भारतन्यू रोपीय परिवार में अनेक उप-परिवार हैं। इनमें से प्रमुख ६ को ऊपर दिखाया गया है। इन ६ उपपरिवारों को “केंद्रमः गौर शतम्‌' दो वर्गों में बांदा गया है। कारण यह है कि हिंदी के सौ का पर्यायवाची इन उपपरिवारों में दो प्रकार से पाया जाता है-एक 'क' रखता है दूसरा श या सा का... ले० केंटुम्‌ संसक्ष।. शतम्‌ 'श' (स) गा०. खुद ख्सी स्तो तो०. कंध अव० सतम्‌ हम इन सभी उपन्यरिवारों का अध्ययन करना अभीष्ट नहीं समझते, केवरू 'भारत-ईराती' उपपरिवार को ही छेते हैं, क्योंकि उत्तर भारत की भापाए इसी के भतर्गत हैं । ४/३/४/३/१ मारत-ईरानी में तीन वर्ग हैं-- (१) ईरानी (२) दरद (३) आये । कुछ लोग इसे इस प्रकार भी कहते हैं कि उपपरिवार का ताम आये हो भौर वर्गों के नाम (१) ईरानी (२) दरद तथा (३) भारतीय हों । ईरानी में ईराम की भाषाएं आा जाती हैं। विद्वानों ने पता लगाया है कि प्राचीन फारसी और संस्क्ृत में घनिष्ठ सबंध है । जेंदावस्ता और वेदों की भाषा का ताम्य मी बताया जाता है। आधुनिक भारतीय आये-भाषाओं में मी फारसी के भनेक शब्द हैं तथा बहुत से संस्कृत तथा फारसी शब्द समानता रखते हैं । दरद भाषाओं का क्षेत्र पामीर तथा पश्चिमोत्तर पंजाब है। इत भाषाओं का गठन ईरानी और भारतीय के वीच का है अतः इन्हें भारत-ईरानी के अत्तग्गंत मान लिया जाता है, इसकी प्रमुख भाषाए' काश्मीरी, शीता भादि हैं। तीसरा वग भारतीय आये भाषाओं का है, जिसका विवरण अलग ही देना उचित होगा । उत्तर दीजिए --- १. भाषाओं का वर्गीकरण किन-किन आधारों पर किया जा सकता है? २. आकंतिगृूलक वर्गीकरण के अन्तगंत हिंदी का स्थान बताइए । ३. भारतवं में किन-किन परिवारों की भाषाएं बोली जाती हैं ? भारतीय आय-भाषाएं 4 (प्राचीन और मध्यकालीन) ५/९ ऊपर बताया जा चुका है कि भारत में अनेक परिवारों की भाषाएं बोली जाती हैं । इनमे दो परिवार प्रमुख हैं--(१) द्रविड परिवार तथा (२) भारत-यूरोपीय परिवार । 'हिन्दी का संबंध 'भारत-यूरोपीय' परिवार से है । इस परिवार की भाषाए योरूप के पश्चिम में आायलेण्ड से लेकर भारत के पूर्व तक वोली जाती हैं और विस्तार, साहित्यिक समृद्धि, बोलने वालो की सख्या, अध्ययन भादि की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। पारिवारिक वर्गीकरण मे अनेक हदृष्टियों से भारत-यरोपीय परिवार का नाम प्रथम आता है। इस परि- वार का अतीत और वर्तमान दोनों ही गौरवपूर्णा है--जिस परिवार मे ग्रीक, लैटिन, सस्कृत, फारसी, भग्न जी, रूसी, जमंन, बंगला, हिंदी आदि भाषाएं हों उसके वैभव का क्या कहता ! संपूर्ण योरप, ईरान और उत्तर भारत में इस परिवार का प्रभुत्व है, आधिपत्य है । इस परिवार के उपपरिवारों की बात भी ऊपर कही जा चुकी हे। इन उपपरिवारों के एक का नाम बताया गया था 'भारतशईरानी' या आये!। आये उपपरिवार में तीन वर्गों का संकेत था, एक ईरान से संबंधित, दूसरा दरद और तीसरा भारत से सबंधित । इस अध्याय में भारतीय आय-भाषाओ का कुछ विवरण उपस्थित किया जाएगा । इस वर्ग को महत्त्व देने का कारण तो आप समझ ही गए होगे, वयोकि इस वर्ग की आधुनिक भाषाभो में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण भाषा है, जिसका नास है (हिंदी -- ५/२ भारतीय आय-भाषाथो का इतिहास लगभग ३५०० वर्षों का मिलता है। यह वह समय हो सकता है जब वेदों की रचना हुई हो । वेदों को बसे तो बहुत पुराना माना जाता है परन्तु उनमे भाषा का जो रूप हमें आज- कल प्राप्त है उसके आधार पर साढ़े तीन हजार बष पु बेदो का प्रणयन सभव प्रतीत होता है। साहित्य और भाषा का यह स्रोत निरतर चलता रहा है, जोर जो कृतियां हमे वर्तमान काछ में उपलब्ध है उनको देखते हुए यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि तव से अब तक भारतीय वाहःमय समृद्ध रहा है । इस ३५०० वर्षो का विभाजन इस प्रकार करते हैं--- ४९ आर. १५०० ) वैदिक ]) _, प्राचीन भारतीय कबायें-माषाए १०४०० हु “-सस्कृतत ) (१५० ० रृ पू ,---५० ० ड़, पृ) १४१ १॥|+ । है ॥॥। | $ ] ज््णे शत " ह -0[4 00% ] $ “एप्राकृत 7४“ मब्यकालीन भारतीय आ॑न्मापाए रड्ढ 8 ५ ६ ड+ कक क ४ हित ७ ८. |! | >-अपशज्वझ । (००० हूं, पव--+€ ००० ई,) इुं, ६०5०० हे है न [#४ झा 'रगाक* अन्मयान+. छुमुनमरक 20 243 जमग्पक... अएअ, बन हज है आग 2 छः ई. १००० | _ आधुनिक मारतीय आय-मायपाए टू २००० | (१००० ६इ.-- २००० हू.) द्र्नीन भारतीय कब अर कऊाए ० 8..0.7.......१ / प्रात्चीन भारतीय आय-मापाओों के दो रूपए मिलते हैं--वदिक ल न प्त्क्ता अरे “तक गिल पे मई: परकअजक अजय कक अनेक. ० नेलल वजन 5, ।: 9 आप: वरना 5 की दल ब्ह्छ अर भस्झती । कुछ छाग इन दादा का हस्कत दां कहते ह, कौर कक स्क््त दया उच्छत छइथवा छलाकृक थ््प भारत की ही नहीं विह्व की एक प्रमुख नापा है, और जब से आधुनिक माया-विज्ञान का वार॑न हुआ हैं ठब से तो इसका महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है । किसी भी बड़े विश्वविद्यालय में संस्कृत का विभाग अवधब्य मिलेगा । जो मम माषा-ब्ास्त्री होगा वह संस्छृत भाषा के संबंध में कछ बातें बवइय जानता कल थे सह सस्क्ृतव कहव हू। कुछ छात्रा न इस छन्दतू भा कहा हू। वंद चार हँ--- ऋचग्वद, सामत्रद, यजबंद ठवा अथवंदद। इन चारा म ऋगवद के कुछ दद्या तब प्रचद्धित रहा हो अब आये पंच नवियों के प्रान्त पंजाब में व्ते हों । इसके पंडलाओ "केडेल उफटा के पाठ से वजि हार्ठ ब्न्_्न्टी का जी ब््् गो जय बहुत खम्थ तक बंदा के पाठ म दवा हाता रहा होगी । कुछ छात्रा पघ्द ०० तक बह क्रिया चछटी रही । हा] | 0“ / ० ० दर 8 हम व्यय करना. आाण्णा पाक हम] है_--ख हनन | २/१/२ पक धच्डुत कार सल्कृद का ध्वाचयाम बतर हूं, व ध्वन हे व्दीवान-पकलनाननममजण. तु दम्ण--» स्पा... मएन्मम्पाक- नी2:+ फल आ लिया क्र 52० टला पे घत ०. अुन मान बम, छगाया | अकरल्‍नकरः- दया मूठ भारत यूरापायव व्वादया का दक्ाप्त रूप हा अनुमान लगाव ज्यक ज्ञाद न्क कि ०००2७ >> अका डक ख्न्न्क दया सन्गाक, कप द्ध ०० 2०००८ बम, छठ हट दाए के किट _स्येसमर, ज्ाद्ा हू क्कि पहले चदग तथा दवग नहा थ, दादक काठ मे काए। सूचा (इस च अ्रका र 6 +-- नल ना, उअदनलम-न्‍क» कि जम जिमबांत सान्माआफ, अन्‍य मम कंन्न्॑क. व्यूजन-- के वद्य व, सु, गू, व, 2: ) कटने हिट प्‌ ४[ ( हिरड प्ड्कु कई | जज ] तप ॥ 7५ :<4 हु है] ग् ब्ग् ञ्क क्र ्यामसक अमन्‍्ममदरत जरुकगाक, अक्षर ऋषिाक, उखपन्‍मक, चाप अकननन्‍पत-ध्क कक, ््ः ट पढ़ छ, 5, र्‌ न हे अल्जका शटर हा । [ ८६४ ८< ६+ ६) ७३ ] ४ ८० ए:टू धुऋ का हि अय्कनन- 4ऋम्मगूकपहमाार नह | सा का सान्गागाक जाओ उसका 2++-> मपाक, प्र १ १| [ ७+॥ के पर ष्य्‌ है] श्प ) घध्ष्थ शक ब्क्‌ ञ्छ ब्प्ड ञ्ब ६.4 दर प्‌, फू, 5 #] ञआप्ट्य गई ॥ ( ३ 0 आए ८4 कक, ) साप्ट्य ४२ अतस्थ (यू, र्‌, ल, व्‌ ) द॑तीप्ज्य व्‌ उष्म ( शू, प्‌, त्त्‌, हे ) [ह घोष ।: >-अघोप । खू --जिह्वामूलीय ( फ --उपध्मानीय स्व॒र-- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ , ल, ए, ओ--मूछ ऐ, भी, --संयुक्त (नइ) (अउ) अनु ना सिक-- हटा ५४/२/१/३ वेदों का संकलन करने से काफी पहले मंत्रों की रचना होती आई होगी । संभव है बहुत से मंत्र आर्यो के भारत में आने से पहले हो वने हों। न जाने कितने समय और कितने विस्तृत स्थल में इनकी रचना हुई होगी । मंत्रों का अध्ययन करते समय जो रूपात्मक वपम्य दिखाई देता हैं वही इस घारणा के मूल में है। यजुर्वेद में रूप की यह विपमता भोर भी स्पष्ट रूप में देखी जाती है, उसके कुछ मंत्र तो वेदिक साहित्य का प्राचीनतम रूप हैं। मंत्र-युग की अंतिम कृति 'अथर्ववेद! मालूम होती है। ऋग्वेद में वोलियों का अंतर विशेष हप से लक्षित होता है। मंडल बझब्द ही इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है । कुछ शब्द और झब्द-समृच्चय जो एक मंडल में पाये जाते हैं, दूसरे में नहीं मिलते, बौर इसी प्रकार इन मंडलों में पाए गए शव्द-रुपों में भी अंतर मिलता है) बेदों का संपादन काफी समय के वाद किया गया प्रतीत होता हैं। वंदिक साहित्य का अंतिम बंग ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिपदों में प्राप्त होता है। इन सभी क्ृतियों की मापा को “वेदिक संस्क्ृत' कहा जाता है । ५/२/२ 'संस्कृत' को 'लौकिका तथा बलासिकल' विश्येपणों से विभूषित किया जाता है । मान्यता है कि प्रचलित प्राकृत को संस्कार करने के उपरान्त जो रुप प्राप्त हुआा उसे संस्कार युक्तां या संस्कृत कहा गया । कुछ विद्वानों का तो ऐसा भी विचार है कि संस्क्ृत वोलचाल की भाषा नहीं थी : साहित्य- प्रशयन की सापा थी । हार्नेले, ग्रियसंत आदि विदेशी विद्वाच ऐसा ही मानत्ते हैं। पर मारतीय विद्वान गुण, मण्डारकर आदि इसे बोलचाल की भी भाषा मानते हूँ । संस्कृत में लिखित साहित्य की एक लम्बी परंपरा है जो हजारों वर्ष पहले शुरू होकर मुगल सम्राठों के समय तक तो चली ही, किसी रूप में आज भी चल रही है। भाज तो उसे जीविठ भाषाओं के समान ही श्र णी मिली ४३ हुई है और संविधान की भाषाओं में उसे भी माता गया है। मृत्‌ भाषा मानने की पुरानी वात अब समाप्त हो चुकी है। कभी-कभी तो इस मत का भी प्रतिपादन किया जाता है कि भारत फी राजभाषा 'संस्कृत' हो । एक बात अवश्य है कि संस्कृत जिस रूप में आज विद्यमान है वह वोलचाल का रूप नहीं मालुम होता, साहित्यिक रूप ही मालुम होता है, ओर इसीलिए जब संस्कृत को राज- भाषा बनाने की बात कही जाती है तो उसके साथ ही यह प्रस्ताव भी बाता है कि संस्कृत को सरहू बनाया जाए- उसको ध्वनियां, रूप आदि सरल हों । ५/२/२/१ संस्कृत को घ्वतियों में वेदिक ध्वनियों की अपेक्षा कमी हो गई थी । व्यंजन क वर्ग, चवगगं, टव्गे, तव्गे, प वर्ग। भन्तस्थ ऊष्म यथावत्त थे । कु छठ छह ख फ व्‌ लुप्ठ हो गए थे । शुद्ध अतुतासिक > स्वर ओर व्यंजन के बीच भूलते लगे । स्वर ऋ, ले अपना स्वरत्व खो चुके थे । ५/२/२/२ रचना की दृष्टि से धातुओं का अथे परिवर्तित होने छूगा था । वाक्य में शब्द का स्थान प्राय: निश्चित नही था । संस्कृत में द्रविड़ तथा आग्नेय परिवार के शब्द आ चुके थे-- जैसे कुड, दंड, नाग, कदली । संस्कृत परे तीव लिग होते हैं:- पुल्लिग, स्त्रीलिंग तथा नपुसकलिंग । बचनों की सख्या मी तीन है- एकवचन, द्विवचन, तथा बहुबचन । चेदिक संस्क्ृत में जो रूपा< धिक्य था वह पंस्क्ृत में कुछ कम हो गया, इससे रचना की जठिल्षता में भी अंतर पड़ा । संस्कृत एक विभक्ति-प्रधान माषा रही है परन्तु इसकी विमक्तियां मुल द्ब्द के साथ मिलकर एक रूप हो जाती हैं जैसे रामे, रामाभ्याम आभादि । [ विदेशी शब्द १ ( स्वराघात २ “*« _- वैदिक [ कुछ घ्वनियां ६९६ ->'"| संस्कृत ३ कुछ रूप कु १७8७ ट्े ४ -. । जठिलता ( संगीतात्मकता इस प्रकार वेदिक में कुछ कमियां करके और थोड़ी सी बातें वढाक संस्कृत ने अपना रूप प्राप्त किया। इस संस्कृत को कितना मान मिला, इसव ४४ व ' ह् रे ८. कह कतना विस्तार हुआ, पाण्डित्य का कितना प्रदर्शन हुआ, कसी सावंभोमिकता मिली, भाषा-शास्त्र मे इसे क्या स्थान प्राप्त हुमा, आज भी इसका क्या स्थाव है-ये बातें सवंविदित हैं । ५/३/१ भारतीय भार्य-भाषाओं का मध्यकाल मोटे रूप मे तीन अवस्थाएं रखता है, भोर प्रत्येक अवस्था को ५०० वर्ष का माना गया है--इंस पुरे काछ की कुछ लोग 'प्राकृत' काल भी कहते हैं और तीन कालो की कल्पना करते हैं। 'प्राकृत' का शाव्दिक अर्थ 'प्रकृति' से संबंधित होकर स्वभाव! या 'लोक' संबंधित होता है, और कहा जाता है कि इस युग की भापाओं में छोकन्मापा का रुप सुरक्षित है, य्याव इस युग का सुन्दर साहित्य भी उपलब्ध होता है। इस मध्यथुगीन भाषा का आविर्भाव कुछ छोगों के असुप्तार इसलिए भी था कि पंडितों ने संस्कृत को जटिल बना दिया था और उसे नियमों से इतना वांध दिया था कि सामान्यश्जन उसमें प्रवेश करने से घबडाता था। उसने अपनी बोलचाल की एक अन्य भाषा तिकाल लो ओर इसे 'प्राकृत' कहा जाने ऊुगा । इस युग के तीन विकास-स्वरूप स्पष्ट दिखाई देते है । | पालि & प्रथम प्राकृत ("१०० टू पूर्वें---० ई ! ह | ० ] <€---++- « मागधी , भद्ध मागधी | । . पेशाची. /प्राकृुत + द्वितीय प्राकृत , महाराष्ट्री | , शौर सनी | जज "१६५०० ई ---१ ०००३४, न ०६ “० 0 “४ , मागधी ._] ॥। , अद्ध मागधी | । , पैशाची “बपभ्रश <: तृतीय प्राकृत , महाराष्ट्री | ५. शौर सेनी | +- ५ ब्राचड | ७ खस श्क्श्लु ई,---५०० टू लटक ९२) ७ ५/३/१/१ बौद्ध साहित्य के प्रसंग मे पालि भाषा बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस भाषा का क्षेत्र भारत ही नहीं रहा वरन्‌ लंका, ब्रह्मदेश, तिब्बत, चीन जापान आदि देश भी रहे । आज भी यह बोद्ध धर्म की भाषा है भोौर एक ४६ भी कहते हैं जिसमे आत्मीयता और व्यक्ति विशेष का पुट भी दिखाई पद्त्ता है। इसके नामकरण पर भी विद्वानों के अमेक मत हैं। कुछ लोग मानते हूँ कि चू कि यह 'पप्राक् (पहले) कृत (बनाई हुई) है इसलिए इसे प्राकृत या मानव को वास्तविक मापा कहना चाहिए। प्रकृत' या सहज रूप में बोली जाने के कारण भी कुछ छोग इसे 'प्राकृत' कहते हैं । इसमें वचन का 'सहज व्यापार होता है, यह मानवी प्रकृति के अनुरूप होती है बतः इस प्राकृत कहना चाहिए--इस कथन का भी प्रायः वही भाव है । पर एक बडी विचित्र वात यह है कि पुस्तकों में प्राप्त प्राकृत को कुछ नियमों के सहारे बवायास ही संस्कृत में परिवर्तित कर दिया जा सकता है; या यो कहिए कि कुछ नियमों को मानकर संस्कृत का रूप ही 'प्राकृत' बना दिया जाना है। विभिन्न प्रकार की प्राकृतों के विभिन्‍्त नियम है। इसीलिए कुछ लोग प्राकृत (सहज) जैसी भाषा को सस्क्ृत से उदभूत कृत्रिम मापा बताते हैं । ५/३/३ प्राकृतत मापा के अनेक रुप हैँ। कुछ प्राक्ृ्ते भारतवर्ष के वाहर भी मिली हैं | तुक्रिस्तान मे कुछ लेख जो खरोष्ठी लिवि में मिल्ते हैं वे प्राकृत में हैं, इसी प्रकार खोतान तथा मध्यएशिया मे प्राकृत के ढप मिले हैं-- छुछ झुसी विद्वानों ने इन प्राकृतों पर विशेष प्रकाश डालने की चेण्ठा की है । परन्तु प्राकतो के अधिक रूप और नपूने मारत में मिले हैं। प्राकृतों के वर्गीकरण करमे के मी अनेक आधार हैं जैसे धामिक, साहित्यिक, भौगोलिक, व्याकरणिक आदि | इसके अनेक नाम मिरते हैं--महाराष्ट्रीय, झौरसेनी, मागघी, पंश्ाची, अद्ध मागधी, आर्प, चूलिका, शाकारी, ढक्‍की, चाडाली, गोड़ी, शावरी, ब्राचड, खास, माद्री, ट्वकी आदि परन्तु अधिक प्रचलित नाम केवल पाच हैं--मागधी, अरद्ध मागधी, महाराष्ट्री, पंशाची और शौरसेती । इनका विवरण, अति सक्षेप में, नीच दिया जा रहा है-- १, मागधी--. मगध के आसपास का प्राकृत । इसमें 'र का छल हो जाता है, 'ज' का 'य' हो जाता है तथा 'स, 'प के स्थान पर 'श' मिलता है। २, क्षद्ध मागमधों --प्राचीन कौशल के क्रामपास की सापा शत इसमे चवर्ग के स्थान पर ॒ तबर्ग मिलता है, प “श' के स्थान पर त' त्था दत्य ध्वनियों के स्थान पर मूद्ध न्‍्य घ्वनिया । ३. महाराष्ट्री-- मूछ स्थान महाराष्ट्र, यह प्राकृत बहुत महंत्वपूर्ण रही है । हैं: ६४: ३११४ | । 02 8 । १६९! मठ ४2 ॥ ७ क्डल अन्त ॥॥॥ धि 4 । जन लखन हे 0 (4 । | एः ++ #ए 7 5 नौ | है| र 0ुठ ०० भर नमक ही >>. १॥.* ४ [7 2 #छ है हि ह। (या ०* ([. ७३७ 0४ | ४७. (5) ॥89* बह प्रा | | करी हु ॥! #७ ॥४ है आकर के ॥९ कक कह व कक 8. ढप जनक मा प्णफ 5 ५७ गो $ कक (६ || >> चा। | # | भाए.] हि गैः न्‍ा+ गम $ 2 का कि [। हु ३). #+ $+ ६ ह। | दया थक 4न्‍ब० > वी, नह + हु बा | ५ ४5 | $ ५ का ! 4 कई का | 'ह पछ | 5 * फ 6 पीए! 5 | ० एि 0” [9 [0 मो गई | प् ला $ 4 .] ि हक (4 > ५ 0 प् ब फि ॥2 शी ५. [५ पर. 9 कु के नल ()) ॥: छ [. | ५७. ॥ए! | > का | [2 ३ कर (.. 6 जज दे ष्ृ ७ | | है. है 5 4५७ + | « १ हे ऐ-- कर $ है ..+ 04 |: ४ ६ कट !ः हट ॥7 |॥ + ( १ हे हे 0 । ॥ - 6 बन रु ५ रा ॥॥७/ पे ना ६4 4 ह ल्‍ ए/ ट रु मी [ है >> + 0 है « १३ ७! ९५ £ि ७ बंए... ७ कि ५. [५४९ ()') पं ५ + तु कह | £९॥ ४ ॥ए ॥|त* ' 3 १ (११ ही 4 हैक रथ एप एफ रह हट [र ह एछ़ 9 है हु ।४४ | हा 8 श ) | बह | तु 3/ हि ४ पं रैः ४ श १:५ [5९ ड़. »» ६ हु धर (५ ( ३ ॥९ ४! हा ९! 0... 47१ (. )/ 7८ ॥5 जा हा हि ्र 2 0३. |» है |! गन न+ ५ ५. 4 ६ + $ | हु हर] हर ॥ 5 न (६ ५ ि ६ ॥ 5 कक न $ 43.4 १६) आर ( ४. #4॥+८ (५0 ४ कल की हे ४१ है. है अल. + 9 | ] पा ॥ हे डे ॥' छ ] $) |# ५ (७ ढ (६ हर हे ढ । $॥0.. ४४ 5 की 7 १ हा 40४/ पृ श् ।( + 0 थी हे । 2 | हो! बम ९! 3 || 4* हे 47 ।* | संस्कृत धाव्द के बिगड़े हुए रूप से था। भाषा विश्येप के भर्थ में इसका प्रयोग ५०० ईस्वी के बाद ही हुआ प्रतीत होता है | अपश्र श्ञ के भी अगैक भेद-प्रभेद माने जाते है । कुछ छोप इमके तीव भेद मानते हैं नागर, उपनागर और ब्राचड । कुछ इसके भेदो को वेदर्भी, गौड़ी, श्राचड़, थोड़ी, ककेयी भादि नामों से संबोधित करते हैं। कुछ विद्वानों मे तो २७ भेद तक माने हैं। कुछ इन्हें घटाकर अधिक वैज्ञानिक और सुविधाजनक रूप में केवछ 'परश्चिमी' और “पूर्वी” ही मानकर संतोप करते है | पर यह मान्यता प्रायः चलती भाई है कि प्रत्येक प्राकृत से एक अपभ्रश' निकली, इस प्रकार ५ अपभ्रश तो पांच प्राह्ृतों से निकली, बाकी '्राचड्र' अपभ्रश का नाम भी बहुतायत से मिलता है अतः इसे भी शामिल कर लेना चाहिए । काम तो इन ६ अपभ्र थों से ही चल जाता है, पर कुछ छोगों का विचार है कि पहाड़ी भाषाओों की .जन्मदाता खम्न को भी शामिल कर लेना चाहिए। यह अपना-अपना मत है कि कितनी अपभश्र श मानें, परन्तु सुबिधा के लिए ऊपर लिखे भेदों को मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है । अपभ्रश मापाए' बहुत महृत्वपुर्णा है क्योंकि ये हमारी आधु- निक भारतोय आपयं-मापाओं के पूर्व रूप हैं, और विद्वानों का विचार है कि आधुनिक भारतीय आय॑-मापाएं सीधे-्सीधे अपश्रशों से विकसित हुई । ५/३/४/१ अपश्रशञों में भी ध्यति तथा रूप-संबंधी कुछ बातें दिखाई देती है। ध्वनि-संबंधी - स्वरों के अनुनासिक रूप मिलते है, 'श' 'ष' के स्थान पर से मिलता है, केवल 'मागधी' में 'श मिलता है, व बदछू कर व! बन गया, ए्ण' “नह में बदछ गया, 'य का 'ज' बने गया, '&छ' का आधिक्य हो गया--ड न द र के स्थानों पर मिलने लगा । रूप-संबंधी-- वाक्य में शब्दों के स्थान निश्चित होकर क्रम बन गया, तपु सक- लिंग समाप्त हो गया, कारकों के रूप कम्त हो गए, तद्भव शब्दों को संख्या बहुत होगई, कारकों के योतव के लिए अलग पब्द लगाने की आवश्यकता हुई, भाषा सरल हो गई क्योकि नाम और धातु दोनों के रूप बहुत कम हो गए। इस प्रकार सरलीकरणा का कार्य वेग से हुआ परन्तु अस्पष्टता भी आंगई वयोकि बहुत से रूप एक-प्रकार के होगए। में मिल जाना लिहिल 0. ७७४४ रूप (| लिंग. संस्या भर पे ज । 0 8४ ि रूपों में (जटिल) | (३) कारक | उप । (४) क्रिया || रू | | पाली । (कम जटिल) ०9) पि प्राकत | कम (कम सरल) (१) कठित ध्वनियों का लछोप || (२) व्यजनों के स्थान पर स्वर शी (३) ध्वनियों की सख्या में कमी अपम्र श | (४) अनेक घ्वनियों का एक्र दूसरे (सरल) | | । आधुनिक भारतीय आये-मापाएं (१) संक्षिप्त विप्पणशिया लिखने की चेप्टा करें--- १. वर्दिक सस्छृत, २, संस्कृत, ३. पाली, ४. प्राहइत, ५. अपभ्रंश । (२) 'कठित से सरल की ओर'-क्या यह सिद्धान्त भाषाओं में छागु होता है ? ६ आधुनिक भारतीय आय-माषाएं ्ज्ज्ज्ज्त्रय््््चचससचचिडकफ ना: तु 5 घर 5..." _+___ ००००-००“ पक" २०४५५ ७ह+ ५७७५-५७ ५७७०० -क8५५०-पनकक ५-५० पका पाप" 4055०००००००याहमभाता+पाकंकक +०-+-+०.००...००.००७७० .०५--७.७०७००००३७५७५ ० व्यापक चमक भा इन नाभा ००० प न पा॒थ कक थ० कम का भा न पा 9०3 भा ० पवन >मयभकगव० न >०ा७००णम न >प>>मनन्न्ज् कक लग प्स्त्ससञि ६/६ आधुनिक युग में भारत के उत्तर में कई भाषाए' बोली जाती हैं। उत्तर प्रदेश, दिल्‍ली आदि के लोग हिंदी बोलते हैं, बंगालियों को बंगला का प्रयोग प्रिय है, भ्ुजरात के लोग गुजराती भौर पजाब के पंजाबी बोलते हैं । महाराष्ट्र प्रान्त्त में मराठी बोली जाती है। मसम में अप्तमी ओर उड़ीसा में ओोड़िया । पहाड़ी प्रान्तों में विविध प्रकार की पहाडी भाषाए' हैँ। राजस्थान में राजस्थानी के अनेक रूप है। इस प्रकार उत्तर भारत में अनेक माषाओं का प्रचलन है । पर इन सभी भाषाओं में कई प्रकार की समरानताए भी देखी जाती हैं-शब्दों की समानता, लिपि की समानता, वाक्य-विन्यास की समाचता भौर अनेक अवस्थाओं में शब्दों के रूप बनाने की समानता | इस 'समातता का क्या कारण है ? उत्तर स्पष्ट है। इन सभी भाषाओं का मूल-स्थाव एक ही है | प्राकृतों से जो विभिन्‍न अपभ्रंश भाषाएं निकली उन अपभ्रश्ञों में ही आधुनिक भारतीय आये-माषाओं के ततु विद्यमान हैं। इनको इस प्रकार दिखाया जा सकता है-- १. मागधी १. बिहारी २. थोड़ियां (सामान्यतः उहिया नाम से, प्रचलित) ३, असमी (आसापी, असमिया आदि नाम ४. बंगला (बंगाली भी कही जाती है) २, अड् मागधी ५. पूर्वी हिंदी ३, महाराष्ट्री ९ मराठो ४. पेशाची ७, लहुंदा (पाकिस्तान क्षेत्र में है, पर नाम अभी तक इधर भी चलता है) ८, पंजाबी ५, शौरसफेनी ९, पश्चिमी हिंदी १०, राजस्थानी (राजस्थानी के साथ खानदेशी भी ली जा सकती है) ११, भ्रुजराती (गुजराती में भीली भी मिलाई जा सकती है) २६ १२, भीली १३, ख़ानदेशी १४. पहाड़ी (इन्हें कुछ छोग खस' के अतगंत मानते हैं) ६. ब्राचड १५. सिंधी (इसका क्षेत्र तो पाकिस्तान में चला गया, पर यह भाषा पिधियों द्वारा बोली जाती है तथा भारत की राष्ट्र-मापाओं में अब इसका भी स्थान है) ६/२ ऊपर दी गई आधुनिक भारतीय भाषाओं का वर्गीकरण करने का प्रयास प्रमुखत: दो विद्वानों द्वारा किया गया है। 'भारत का भाषा-सर्वक्षण' नामक ग्रंथ में सर जाजे अव्राहुम ग्रियसंन ने इस ओर जो प्रयास किया है, उनके अनुसार इन भाषात्रों को तीन उपश्याखाओं में बांदा गया है--(१) वहिरंग उपशासखा (२) मध्यवर्ती उपश्ाखा और (३) भगतरंग उपशाखा । पहली उप- शाखा में तीत वर्ग हैं, दूसरी में एक जोर तीसरी में दो वर्ग-इस प्रकार ६ वर्गों में ऊपर लिखी १५ भाषाओं को विभक्त किया है। सुनीतिकुमार चर्टर्जी ने अपनी पुस्वक “बगला भाषा की उत्पत्ति और विकास' में यह वर्गीकरण (१) उदीच्य, (२) प्रतीच्य, (३) मध्यदेशीय, (४) प्राच्य तथा (५) दक्षिणात्य वर्गों के आधार पर किया है । दोनों विद्वानों के अपने-अपने मत हैं, और दोनों ही वर्गीकरण प्रचलित हैं। कभी कभी यह प्रइन भी पूछा जाता है कि आपको कौनसा वर्गीकरण अच्छा लगता है, भौर आसानी को देखते हुए विद्यार्थी प्रायः यही उत्तर देते हैं कि चटर्जी का वर्गीकरण अच्छा है क्योंकि चटर्जी का वर्गी- करण चारों दिशाओं और मध्य पर आवारित है | चटर्जी का वर्गीकरणु-- घिंघी लहंदा पंजाबी 5२ इसे आसानी से याद किया जा सकता है और बताया भी जा सकता है। परन्तु ग्रियर्सन का वर्गीकरण कदाचित अधिक वैज्ञानिक है, क्योंकि वह भाषाओं की प्रवृत्ति पर आधारित है। पहले ग्रियर्सन का वर्गीकरण प्रकाशित हुआ था, चटर्जी ने उसकी कडी आलोचना की थी और अपना वर्गीकरण दिया। इस आलोचना के आधार पर ग्रियसेत ने अपने वर्गीकरण पर पुनतविचार भी क्रिया था। और भी कई छोगों ने अपने-अपने वर्गीकरण प्रह्तुत किए है, परन्तु न तो वे प्रचलित है और तन उसके पीछे कोई मान्यताए हैं। ६/१/१ ग्रियसेन ने तीन उपशाखाओं की कल्पना की है, एक बाहरी दूसरी भीतरी भौर तीसरी बीच की । इसझ्के मूल में, हो सकता है, भारतवर्ष में भार्यो के दो वार प्रवेश का सिद्धान्त रहा हो । ग्रियसेन ने ,ध्वनि, रूप भोर शब्द-समृह तीन बातों पर विचार किया, और उन्हें ऐसा दिखाई पडा कि इन तीन शाखाओं में समानता के लक्षण है। इन उपज्ाखाओं को बर्गो में बांदा गया और उनमें भाषाओं की बिठाया गया । भाषा सर्वेक्षण में यह वर्गीकरण इस प्रकार हुआ-- (अ) बहिरग उपश्ाखा (१) परश्चिमोत्तर वगे॑_१. लहंदा २. सिधी (२) दक्षिणी वर्ग ३. मराठी । (३) पूर्वी वर्ग ४. भसमी ५, बगला ६, ओड़िया । कर ७, बिहारी (आ) मध्यवर्ती उपद्याखा (४) मध्यवर्ती वर्ग ८, पर्वी हिंदी (इ) भ तरंग उपशाखा (५) केन्द वर्ग 8, पश्चिमी हिंदी १०, पंजाबी ११, गुजराती १२. भीली १३, खानदेशी १४, राजस्थानी प्‌ ९३ ह (६) पहाड़ी वर्ग १५. पहाड़ी भाषाएँ ; पूर्वी (नंपाली) -् ६ पश्चिमी ॥ केन्द्रवर्ती प्रसमी ६ बंगला ४ ! 3 मराठी कुछ समय उपरान्त उन्होंने जो अपना दूसरा वर्गीकरण प्रस्तुत किया उसमें पश्चिमी हिंदी अथवा हिंदी को मध्यदेशीय भाषा मानकर भाषाओं का स्थान अंकित किया | पूर्वी हिंदी को अतवर्ती भाषाओं में शामिल कर दिया और बताया कि बसे तो इसका संबंध बहिरंग भाषाओं से है परन्तु अधिक निकटता भ तवंर्ती भाषाओं से है । वहिरंग भाषाएं ज्वों-की त्यों रही ! ६/१/२/१ अपनी नवीन पुस्तक आधुनिक भारत की भाषाएं और साहित्य में चटर्जी ने माषाओं का वर्गीक रण इस प्रकार लिखा है:-- ( १ ) अंलर पे दिवेय बाग १, हिंदकों अथवा लहूंदा ८5५ लाख २. सिंधी (कच्छी सहित) (२) दक्षिणी वर्ग ३. मराठी (कोंकणी सहित) ४० छाख (३) पूर्वी बर्गे ४ आओडिया ११० लाख ५, बंगला ६७० लाख | ६. असमिया (असम्ी) २५ लाख ७, धिहारी ३७० लाख मंथिली १०० लाख मगही . ६५ लाख भोजपुरी २०० राख । (वस्तर राज्य की) १ लाख (४) पर्व-मध्यवर्ती वर्म वी हिंदी (अथवा कोशलछी) २२५ लाख अवधी चघेली छत्तीसगढ़ी ५४ (५) केग्द्रीय वर्ग १०. हिंदी (पश्चिमी हिंदी) ४१० लाखे खड़ी बोली (बह हिदी बांगरू भोर जादू ब्रज भाषा कनोजी बु देली ११, पंजाबी १०५ लाख १२. राजस्थानी-ग्रुजराती गुजराती ११० लाख राजस्थानी १४० लाख मीली २० लाख (६) उत्तरी (अथवा पहाड़ी) १३, पूर्वी पहाड़ी (गोरखाली) ६७० लाख वगे १४, केन्द्रीय पहाड़ी (गढ़वाली) १० लाख १५, पश्चिमी पहाड़ी (कुलू भआादि) १० लाख पर चटर्जी का यह वर्गीकरण इतसा प्रचलित नहीं है, प्रचलित तो इनका पहले वाला वर्गीकरण ही है । ६/२/२ सुनीतिकुमार चटर्जी ने ग्रियर्सन द्वारा दिए आधारों की बांछो- चना करते हुए बताया कि उनके वर्गीकरण का क्षाधार ठीक नहीं हैं। ध्वनि, रूप, शब्द-समृह आदि सभी बातों पर उन्होंने विचार किया । इन्हें मतरंग और बहिरंग का भेद भी ठीक नहीं जंचा और उन्होंने बताया कि पश्चिमोत्तर की लहंदा-सिधी को पूर्व की बंगला, असमी आदि के साथ या मराठी के साथ नहीं रखा जा सकता। आधुनिक भारतीय भाषाओं की विविध अपभ्रश भाषाओं से उत्पत्ति के आधार पर भी ग्रियर्सन की बात ठीक नहीं बंठती । चटर्जी का वर्गीकरण पीछे दिया ही गया है, सामान्य रूप में पुनः प्रस्तुत है-- (क) उदीच्य (उत्तरी) वर्ग १. सिंधी २, लहुंदा ३, पंजाबी (ख) प्रतीच्य (पश्चिमी) वर्ग ४. गुजरातो , |, भीली ग्रुजराती में तथा ५. राजस्थानी है पहाड़ी भौर खानदेशी राजस्थानी में शामिल ५५ (भ) मध्यदेशीय वर्ग ६, पश्चिमी हिंदी (घ) प्राच्य (पूर्वी) वर्ग ७, पूर्वी हिंदी ८५, बिहारी 8१, ओड़िया १०, बंगला ११, असमी (6) दक्षिणात्य (दक्षिणी) वर्ग १२, मराठी यदि चटर्जी ओर ग्रियर्सन के दुपरे वर्गीकरणों को देखें तो पश्चिमी हिंदी या हिंदी (जो नाम आजकल प्रचलित है) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि स्थान की दृष्टि से यह मध्य में वर्तमान है, और इसे अन्य सभी भाषाओं का नैक- टुय प्राप्त करती है। ६/२/३ ऊपर जिन भाषाओं का विवरण दिया गया है वे आज की भाषाएं हैं इनमें से अनेक संविधान में स्वीकृत हैं ओर बाकी के लिए प्रयत्त चल रहे हैं । इन भाषाओं को हम बोलते हैं, आज का साहित्य-निर्माण इन्हीं भाषाभों के माध्यम से हो रहा है। इन आधुनिक भारतीय भाषाओं का पूर्ण स्वरूप देखना हो तो वह इस प्रकार है-- [ १. आधुनिक भारतीय आये-भाषाए (हिन्दी आदि) आधुनिक मारतीय मापाए + २. द्रविड़ भापाएं (तमिल गादि) | ३, प्राचीन आयं-माषा--संस्कृत्त ( ४. विदेशी भाषा-्ष ग्रं जी ये भाषाएं वास्तव में कामच्काज की माषाएं हैं और इनको राजकीय मान्यता भी प्राप्त है। वेसे अन्य कई भाषाओं को भी सिखाया जाता है--- | ५, अरबी--मुसलमानों की घामिक भाषा सिखाए जाने वाली भाषाएं हे ६. फारसी--मुगलकालीन समुद्ध भाषा [ ७, रूसी, जमेन, फ्रेंच--योरुप की भाषाएं इसमें भारतीय” दाब्द देखकर विचलित होने की आवश्यकत्ता नहीं हैं, क्योंकि अरबी और फारसी का पठन-पाठन तो भाज भी जारी है, इन ५९ भाषाओं के माध्यम से साहित्य-सर्जन का काम भी बहुत हुआ । झुसी भादि यूरोपीय मापाएं आजकल प्रचार पा रही हैं और अनेक विश्वविद्यालयों में इनके अध्ययन की व्यवस्था है। रूसी भाषा के अध्ययनाथ 'छूसी अध्ययन- संस्थान तथा जमन के लिए 'मंक्समुलर मवन' अच्छा कार्य कर रहे हैं। द्रविड़ मापाओं तथा संस्कृत के संबंध में अन्यत्र चर्चा की जा चुक्री हैं। अब आधुनिक भारतीय आय॑ं-मापाओं का कुछ विवरण देना उचित प्रतीत होता है। ६/२/३/१ जब भारतवर्ष विभाजित नहीं हुआ था और पाकिस्तान भी उप्तवा अग था तब परदिचमी पजाब की भाषा लहंदा थी | इसके कई नाम पे जसे हिंदकी, डिलाही, पश्चिमी पंजाबी । कहा जाता है कि लहूंदा में साहित्य का अभाव है, कुछ गीत-साहित्य अवश्य है। इसकी तीन चार विमाषाए मी हें जैसे मल्तानी, पोठवारी, धन्‍नी भौर स्वयं लहंदा। इसको अपनी लिपि भी है और 'लंडा' लिपि कही जाती है। कुछ विद्वान इसे लहदी भी ऋह देते हैं क्योंकि भाषा स्त्रीलिंग है और लहंंदा कुछ पुल्लिंग सा मालुम होता है पर नाम 'छहुदा' ही है। अब यह भारत की मभापा नहीं है, प।किस्तान की है, क्योकि पश्चिमी पंजाब जहां यह बोली जाती थी, पाकिस्तान का ही भग बन गया है । यह प्रायः रिवाज सा हो गया हैँ कि जब हम भाषाओं की वात करते हैं तो उस परे हिन्दुस्तान को लेते हैं जिसमें पाकिस्तान ही नहीं लंका ओर ब्रह्म- देश भी शामिल थे | मैंने इस पुस्तक में चेष्टा इस बात की की है कि 'मारत' को उसके वर्तमान रूप में लिया जाए, परन्तु वर्गीकरण की बात बिना लह॒॑दा के कुछ अधूरी लगती है, अतः इसे शामिल कर लिया ग्रया है। ६/२/३/२ वे सिधी भाषा का क्षेत्र भी पाकिस्तान में है, परन्तु भारत में सिधी बोलने वालों की संख्या बहुत काफी है, इतनी काफी कि कुछ ही समय पूर्व भारतीय संसद ने इसे भारत की राष्ट्र भापाओं में शामिल कर लिया है। सिधी सिध-प्रदेश की भाषा है भोर आज भी कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मारत के अतगंत हो और जहां की भाषा पिधी हो, १रन्तु इसे सरकारी मान्यता प्राप्त है। सिधु नदी के तटों पर बोली जाने वाली इस भाषा की क्ई विभाषाएं भी हैं, ज॑से थरेली, कच्छी, विचौली सिरंकी, लारी | सिंधी का संत-साहित्य काफी अच्छा बताया जाता है! इस भाषा को विवरणात्मक रूप में प्रस्युत करने का भी प्रयास किया गथा है और 'हिंदी तथा “सिंधी” के संबंध को बताने की भी चेष्ठा की गई है। इस्त प्रसग मे लक्ष्मण खुबचदानी का ताम लिया जा सकता है। अनेक संज्ञा पदों में उक्रार को प्रवति दिखाई देती है । इसकी लिपि भी लंडा बताई जाती है, पर अब इसे नाग़री में भी लिखने लगे हैं। इस समय यह पाकिस्तान के सिंधी प्रदेश की क्षेत्रीय भाषा है। अमन ५७ इसके उत्तर में लहंदा और पूर्व में राजस्थानी हैं । जेसलमेर का दौरा करने पर जब मैंने वहां की भापा का अव्ययन किया तो उसमें सिंधी के कुछ लेक्षण भी पाए गए। सिंधी के दक्षिण में गुजराती है। अब ता थोड़ी-बहुत मात्रा में राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्‍ली में भी भिघी साहित्य प्रकाशित किया जाने लगा है ! ६/२/२/३ दक्षिणात्य वर्ग की मापा मराठी एक समृद्ध भाषा है, इसका साहित्य प्रचुर मात्रा में है और वर्तमान समय में भी बहुत गतिशील है | मराठी भाषा के विद्वानों की संख्या तो बहुत है ओर भापा-आास्त्र के क्षेत्र में मी मराठी भाषा-विदों का योगदान महत्त्वपूर्ण है। मराठी की एक प्रमुख थाखा कोंकणी है जिस पर प्रामाणिक कार्य करने का श्रेय भारत के सुत्रग्चिद्ध भापा-आास्त्री सुमन मगेद्ा कन्रे को है, हैं । मराठी का परिनिष्ठिः रूप पूना में रक्षित होता है, और इसी को टकसाली भाषा माना जाता है । मराठी का एक और रूप था जिसे कुछ लोग वरारी कहते थे । मराठों तथा द्रविड़ से मिश्रित एक भाषा ओर है जिसका नाम 'हल्वी है, ओर यह बस्तर में बोले जाने वाली भाषा है। कुछ लोग इसे एक स्वतंत्र मापा ही मानते हैं, यद्यपि इसके बोलने वालों की संख्या लाखनदों लाख ही हैँ। जहां तक मराठी का संबंध है, इसमें ग्रद्य और पद्य दोनों प्रकार का साहित्य प्रशंसनीय रहा है ओर पत्रकारिता में भी इसकी बाक रही है । मराठी को ठीक उसी तागरी लिपि में लिखा जाता है जिम्तमे हिंदी को । एक-दो ध्वनियां जैसे 'छ अधिक हैं। मराठी मापा में तद्वितांत नामवातु आदि गब्दों का व्यवहार विशेप रूप से होता हूँ । मराठो के स्व॒रा- घात पर विचार करते हुए टर्नेर ने कहा था कि इसमें वंदिक स्वर के भी कुछ चिह्न किन्तु जब ये कम होते जा रहे है और एक नया रूप उमरता गा रहा हैं। मराठो ओर छत्तीसगढ़ी में कई समानताएं मिलती हैं। क्षाघुनिक मारतीय आय-मापाओं में यह घुर दक्षिण को भापा है जौर इसके दक्षिण में द्रविद् मापाओं का क्षेत्र आजाता है । पारस्परिक विनिमय का परिणाम ही हल्वी' भाषा हो सकती है। ६/२/३/४ पूर्व की मापाओं मे सबसे दूर की मापा हू 'असमी' । इसे कुछ आमामी कहते है, कुछ 'असम्रिया और कुछ 'आसामीज'। यह क्म की मापा हू, आर बत्ताया जाता है कि इसका प्राचीन साहित्य मी मिलता है। बसमी की रनिर्श् से काफ़ी मिलती है और उच्चारण में बंगला की ओ' प्रवत्ति भी पाई जाती है--वंसे व्याकरण ओऔर उच्चारण दोनों की दृष्टि से वगला ओर असम्री में पर्वाप्त अ तर बताया जाता है। असमी के बारे में एक ५ बात सुनी जाती है कि इसकी बोलियां अनन्त हैं--एक चोटी से दूसरी चोटी, एक गांव से दूसरे गांव में बोली का अंतर मिलेगा । वैसी असमी की कोई सच्ची विभाषा नही है, परन्तु बोली-वैचित्य दृष्टव्य है। 'भसमी संविधान की स्वीकृत भाषाओं में से एक है, यद्यपि इसके बोलने वालो की संख्या अधिक नही है। यह भाषा तिब्बतन्चीनी परिवार के बहुत निकट है, और असम के कुछ सुदूर भागों में इस परिवार की बोलियां भी प्रचलित है, अतः यह स्वाभाविक ही है कि कुछ पारस्परिक आदान-अ्रदात चलता हो, परल्तु 'असमी' भारतीय आयं-मभाषा ही है और इसका उद्गम 'मागधी' अपश्र द्ञ से है | बंगला भाषा के विद्वानों ने इस भाषा के रूप को स्थिर रखने में काफो काम किया है। अब शने: शर्न: असमी का विकास होने लगा है । ६/२/३/५ बंगला एक बहुत ही समृद्ध भाषा है। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि भाधुनिक भारतीय आयं-भाषाओं में 'बंगला' सबसे अधिक समृद्ध है गौर उसके साहित्य ने अनेक आधुनिक भाषाओं को प्रभावित किया है | बगला के रवीन्ध विश्वन्प्रसिद्ध है। यहां के कई माषा-शास्त्री भी भग्रगष्य हैं, उनमें से एक तो स्वयं चटर्जी ही हैं और दूसरे सेन महाशय कहे जा सकते है । बंगला की अपनी लिपि है और उसकी अपनी विशेषताएं हैं। भोकारान्त दर्शनीय है और 'श” ध्वनि का बाहुल्य भी । अभिव्यक्ति की दृष्टि सै बंगला का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अब बंगाल के विभाजन से पश्चिमी और पूर्वी बगाल में बंगला के दो रूप विकसित होते प्रतीत होते हैं, यथ्पि ग्रामीण बंगला मे यह प्रवृत्ति इतनी अधिक दिखाई नही देती । पाकिस्तानी और भारतीय बगला का अ तर भाकारदावाणी पर देखा जा सकता है, यह अन्तर इतना तीन तो नही है जितना भाधुनिक हिंदी और पाकिस्तानी उदूं का परन्तु कुछ चितनीय प्रवत्तियाँ छक्षित होती है। बंगला का वर्तमान साहित्य भी द्र.तगति से चल रहा है। उपन्यास, नाठक कहानी, काव्य भादि सभी विधाए' गति- शील हैं । ६/२/२/९ उड़ीसा की भाषा है भोड़िया (उड़्िया)। इसे उत्कली और ओद्री नाम भी दिए गए हैं, पर प्रचलित वाम 'भोड़िया! है। 'उड़िया व लिख कर “ओडिया' लिखने का विद्येष कारण यह है कि इस प्रान्त के लोग अपनी पराषा का नाम इसी प्रकार बताते है और तो! के स्थान पर “उ' लिखना ठीक नहीं समझते हैं। भोड़िया का साहित्य भी भच्छा बताया जाता है नाठक* साहित्य की काफी चरचा सुनी गई है। ओोडिया का अपना रंगमंच है और इस हृष्टि से यह काफी भागे है। भक्ति-साहित्य प्रचुर मात्रा में पाया जाता है और तंत्र-साहित्य भी । एक स्थान पर ओड़िया, मराठी ओर द्रविड़ तीचों ५६ मिलती हैं, यहां की भाषा विचित्र है और इसे कुछ लोग 'भत्री' कहते हैं। बसे ओड़िया की कोई प्रसिद्ध विभाषाएं नहीं हैं। मागधी अपभ्रश को बहुत सी पुरानी बातें ममी तक भोड़िया में पाई जाती हैं। इसका साहित्य संस्कृत- सहश अलंक॒त है गौर यह कुछ स्थिर गति से अग्रसर होता रहद्दा है क्योंकि यहां इतनी हल-चलें नहीं हुई जितनी देश के अन्य भागों में | इसके साहित्य में यहां के निवासियों की श्रम ओर शान्तिप्रियता लक्षित होती है। भोड़िया लिपि पर भी बंगाली प्रभाव है| प्रायः देखा जाता है कि ओड़िया तथा बंगला बोलने वाले एक दूसरे को समझ लेते है । ६/२/३/७ मागरधी-अपभ्रश से निकली हुई चौथी महत्त्वपुर्ण भाषा है बिहारी । एक प्रकार से बिहारी उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग से ही शुरू हो जाती है, गोरखपुर में इसकी झलक देखी जा सकती है। सविधान में बिहारी भाषा स्वीकृत राष्ट्रमाषा नही है, इसे (हिंदी के अ तर्गंत ही रखा गया है, पर वैसे बिहारी भाषा सभी भाषाशास्त्रियों द्वारा स्वीकृत एक अलग भाषा है। बिहारी की तीन विभाषाए' मान्य हैं-- (१) मेंथिली, दरभगा के आसपास बोली जाती है, (२) मगह्दी, पटना ओर गया में तथा (३) भोजपुरी, गोरखपुर, चंपारत आदि में । कुछ लोग मोजपुरी को एक पृथक्‌ वर्ग में मी रखते हैं। लिपि की दृष्टि से भाजकल तो नागरी ही प्रचलित है परन्तु इसके साथ ही कैथी और मैथिली भी देखी जा सकती हैं। बिहारी को दििदी-प्रान्त के बतर्गत्त लिया गया है, और कुछ लोग बिहारी को हिंदी भाषा की ही उपमाषा बताते हैं, जैसे कुछ लोग राजस्थानी को इस भ्रकार की माषा कहते हैं। भोजपुरी एक समृद्ध मापा है ओर भाषा तथा साहित्य दोनों दृष्टियों से इस पर क्राम हुआ है। मैथिली भी इन दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। मंधिली और मगही में बहुत साम्य है, और कुल लोग मगही को मंथिली की बोली बताते हैं। मैथिली को तो इतना महत्त्व मिला है कि पटना, कलकत्ता तथा वाराणसी विश्वविद्यालयों में इसे एक स्वतंत्र साथा माना गया है। संथिली के कवि विद्यापत्ति तो अति प्रस्यात हैं । ६/२/३/८५ अपभ्रज्ञों मे एक का नाम हूँ अद्धं मागंधी । इससे उद्मत आाधुनिक भाषा को पूर्वी हिंदी कहा जाता हैँ । हिंदी के दो रूप माने गये हैं से एक पूर्वी जिसको अद्ध मागधी से विकसित कहा जाता है, और दूसरी पश्चिमी जो शोरसनी से विकसित भाषाओं में एक है। पूर्वी तथा पश्चिमी दोनों ट्विंदियों का लेत्र मिल कर हिंदी-क्षेत्र होता हैं, पर आजकल इसका विस्तार और भी दूर तक हो गया है। कुछ छोगो ने पर्वी हिंदी को अद्धंन्विहारी कहा है । ६/ साहित्यक जौर धामिक हृष्टि से अद्ध मागधी भाषा का स्थान ऊंचा रहा है पर राष्ट्रीय दृष्टि से मध्यदेश की भाषा राज्य करती रहो है। पूर्वी हिंदी विहारी के काफो निकट है। इसकी तीन विभाषपाएं है--अवधी, जिसे कौशली या बेसवड़ी भी कहा जाता है, वधेली ओर तीसरी छत्तीमगढी । पूर्वी हिंदी के कवियों ने हिंदी-साहित्य मे उच्च स्थान प्राप्त किया है। पश्चिमी और पूर्वी हिंदी में मी काफो असमानताएं हैं। सकमंक क्रियाओ के भृतकाल में क्मंवाच्य तथा विकारी हूपो का न होना दो प्रमुख अतर हे। अब इस संपूर्ण क्षेत्र पर हिंदी का ही अधिपत्य है और पूर्वी हिंदी का स्वरूप ग्रामीण हो चला है । तुलसी ओर जायसी की प्रतिभा का प्रस्फुटन अवधी में ही हुआ। अब भी कभी-कभी भवधी की रचनाएं दिखाई दे जाती है किन्तु उनका प्रयोग हास्य-विनोद के लिए अधिक होता है । /३/६ पश्चिमी हिन्दी एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण भापा है और भाज इस भाषा का ही एक हप सविधान द्वारा स्वीकृत राज भाषा है। वेसे पश्चिमी हिन्दी की पांच विभाषाएं कही जाती है--(१) खड़ी बोली, (२) ब्नरजमापा, (३) कनौजी, (४) वॉगरू और (५) बु देली । इन विभाषाओं या बोलियों के बारे में अगले अध्याय में लिखेगे। यहा तो इतना ही कहना उपयुक्त होगा कि शौरसेनी से उत्पन्न होकर आधुनिक भाषाओं में पश्चिमी हिन्दी को समृद्ध होने का बहुत अवसर मिला । आज जिसे हिंदी कहा जाता है वह परिचमी हिह्दी की एक विभाषा खड़ी बोली' का ही रुप है। सारे देश मे इसी का बोलबाला है और जितना साहित्य प्रकाशित हो रहा हँ वह भी 'खड़ी वोली' के रूप मे ही है। ब्रजमाषा को अतीत का ग्रौरव प्राप्त है। एक समय था जब यह संपूरों उत्तर भारत की साहित्यक माषा थी । ब्रज-माषा के गोर्वपूर्णो ग्रन्थ भाज भी सम्मान के साथ देखे जाते हैं और उनका बडा प्रचार है। बाकी तीन को बधिक अवसर या सुयोग नही मिला ओर उनका क्षेत्र सीमित रहा। ६/२/३/१० कुछ वर्षो पूर्व पजाबी के दो रूप प्रचलित थे--पश्चिमी पंजाबी और पूर्वी पजाबी । अब पश्चिमी पजाबी पाकिस्तान में चली गई और पूर्वी यहां रह गई और इसी को भारत में पंजाबी वाम दिया जाता है । कहा जाता है हि स्वरणमंदिर के नगर अमृतसर को छुद्ध पंजाबी का क्षेत्र मानता चाहिए । प्राचीन साहित्यिक गरिमा तो इसे प्राप्त नही, पर आधुनिक युग मे पंजाबी के साहित्य प्रचुर मात्रा मे निमित हो रहा है। कहा जाता है इस भाषा को बोलने वाले बलिष्ठ और परिश्रमी किसानो में कठोरता और सादगी दोनो वाते मिलती है। पश्चिमी की अपेक्षा पूर्वी पंजाबी ( जो अब भारत में है ) मे कुछ साहित्य है। हिन्दू-मसलूमान दोनो ने इस भाषा में लिखा १ बछ ५१ और यद्यपि इसक्री अलग लिपि है जिसे 'ग्ररमुखी' कहते हैं परन्तु -वागरी और फारसीन्भरबी लिपियों का प्रयोग भी कर लिया जाता है। वेसे उपयुक्तता को दृष्टि से गुरमखी ही प्रमुख है। यहां के बोलने वाले उदृ में भी दक्ष होते हैं भौर कुछ व्यक्ति हिन्दी के भी विद्वान हुए हैं। आयसमाज तथा सनातन धम दोनों की कट्टरता यहां देखी गई थी । पंजाबियों के बारे में उक्ति है कि दे अधिक व्यावहा रिंक और खरे होते हैं, उनकी भाषा में भी यह, प्रवृत्ति देखी जाती है । पंजाबी में अनुवाद कार्य भी खूब हुआ है। अग्नजी, संस्क्ृत, हिंदी उर्दू आदि की अनेक कृृतियां पंजाबी संस्करणों में उपलब्ध हैं। चटर्जी ने एक स्थान पर कहा था कि पंजाबी को दो शक्तिशाली प्रतिद्व दियों का सामना करना पड़ता है--एक हिंदी, दूसरा उद्दूं । विभाजन के पश्चात्‌ तो पंजाबी पर और भी आधघात हुआ परन्तु अब पंजाबी काफी ऊपर भा रही है और इसके ई लेखक मारत में ही नही, विदेश में भी प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे हैं । ६/२/ ३ /!१ कुछ छोग राजस्थानी और ग्रुजराती को साथ साथ लेते हैं । लंदन के कई पुस्तकालथों में जो मुद्रित ग्रन्थ-सूचियां मिलीं उनमें राजस्थानी और ग्रुजराती ग्रन्धों की सूचियां एक साथ ही दी गई थीं । वास्तव में राजस्थानी और गुजराती परस्पर इतनी संबद्ध हैं कि दोनों की अलग करने में कठिनाई आती है। काफी पहले ये दोनों एक ही थीं पर अब दोनों के स्वृतन्त्र अस्तित्व हैं । गुजराती की कोई विशेष विभाषाए' तो नहीं हैं परन्तु जो कार्ये इस भाषा में किया गया है वह स्तुत्य है। भाषा तथा साहित्य दोचों पक्षों को लेकर अच्छा कार्य किया गया है। उत्तर और दक्षिण की ग्रुजराती में थोड़ा अन्तर भले ही देखा जाए, बसे ग्रुजरातो में प्रायः एकरूपता है। आधुनिक काल में गुजराती का साहित्य काफी समृद्ध माना जाता है। इस भाषा में बोली संबंधी कोई झंश्ट नहीं हैं, एक ही सर्वेमान्य रूप है। पारसी भी ग्रजराती बोलते हैं, यद्यवि उनके उच्चारण में कुछ भेद हैं। गुजरात के लोग विदेश्ञों में भी व्या- पार कर रहे हैं भौर अपने साथ अपनी भाषा को भी ले गए हैं। अनुदित और मौलिक दोनों प्रकार की क्ृतियाँ मिलती हैं। हिंदी माषियों को गुजराती समझने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती, और यदि आप राजस्थान के हों तो और भी आसानी होती है। सं. १६०० तक गुजराती और मारवाड़ी (राजस्थानी) एक ही भाषा थीं। गुजरात के भाषा तथा साहित्य-विशारद प्रस्यात हैं । ६/२/३/१२ भीली बोलियां आदिवासी भीलों द्वारा बोली जाती हैं। इनका कोई साहित्य नही है, और अब भीलों के लड़के-लड़कियाँ हिंदी सीखने लगे हैं । कुछ लोग इसे गुजराती के अतगंत हो मान लेते हैं। इसका अलग ६२ विवरण लिखना भी कुछ उपयोगी नहीं है केवल उपचारवश इसको अलग दिखाया गया है । ६/२/३/१३ खानदेशी : जो स्थिति 'भीली' की है लगमग वही खानदेशी की है। भीली को गुजराती और खानदेशी को राजस्थानी के अंतर्गत लिया जाता है। प्रियर्तत ने इसे एक अलग मापा माना है, पर चटर्जी ने इसे अलग नहीं माना है औौर राजस्थानी में ही शामिल किया है। इसका भी साहित्य नगण्य है मोर आजकल इसका महत्त्व भी नहीं है | ६/२/३/१४ गुजराती भौर राजस्थानी को एक वर्ग में शामिल करने की बात ऊपर बताई गई है । परन्तु सामान्यत: दोनों का स्वतंत्र भ्रस्तित्व है । यह एक संयोग की बात है कि जहां ग्रुजराती को एकरूपता प्राप्त है और उसमें विभाषाओं की कोई बात नहीं उठती, वहां राजस्थानी की कई विभाषाएं है ओर काफी महत्त्वपूर्ण । यही कारण है कि राजस्थानी की एकरूपता का प्रइन हल होता दिखाई नहीं देता । जब सिंधी को संविधान स्वीकृत राष्ट्रमाषा बनाया गया तो राजस्थानी का प्रश्व भी संसद के सामने आया परन्तु एक- रूपता के प्रश्न पर समाधान ते मिलने पर राजस्थानी को स्वीकृत राष्ट्रमापाओं के अंदर शामिल नहीं किया गया। राजस्थानी बोलने वालों की संख्या काफी है और क्षेत्रफल के हिसाव से विस्तार भी बहुत है। इसकी प्रमुख वोलियाँ मेवाती, मारवाड़ी, हृढाड़ी, हाड़ीती और मालवी मानी जाती हैं । मारवाड़ी का पुराता साहित्य डियल के नाम से अति प्रख्यात है। राजस्थानी के अध्ययन में इटेलियन विद्वान तिस्प्तीतोरी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है । वैसे ऐलन, फ्राउवालनर, ओवरहेमर, ऐताइन आदि यूरोपियन विद्वान भी इस भाषा में वहुत अभिरुचि रखते हैं। इसकी प्रत्येक बोली का भाषा-वेज्ञानिक अध्ययन भी प्रगति पर है। राजस्थानी, राजस्थान के बहुत बड़े क्षेत्र की माषा है, परन्तु राजस्थान के पूर्व मरतपुर, घौलपुर, करौली आदि में व्रजमाषा बोली जाती है। हिंदी के प्राचीन साहित्य को राजस्थान की देन बहुत मुल्यवान है। राजस्यानी एक जीवित भाषा है। इसमें साहित्य का निर्माण भी होता है, पत्र-पत्रिकाएं मी हैं परन्तु क्षेत्र को देखते हुए काम सीमित प्रत्तीत होता है, राजस्थान के सेठ बंगाल, मद्रास भौर बम्बई में प्रतिष्ठा प्राप्त हैं, और ये लोग अपने घर तथा व्यवसाय में राजस्थानी का प्रयोग भी करते हैं । ६/२/३/१५ उत्तर प्रदेश के उत्तर में बोले जाने वाली भाषाएं पहाड़ी भाषाओं के नाम से जानी जाती हैं। पहाड़ी भाषाओं पर राजस्थानी का बहुत प्रभाव है, शौरसेनी अपभ्रश से इतकों भी उद्मभृत माता जाता है। पहाड़ी भाषाएं तीन हैं- (१) प्र्वी पहाड़ी, ख़सकुश अथवा नैपाली, (२) केन्दस्थ हि । श्३ पहाड़ी तथा (३) पश्चिमी पहाड़ी । पूर्वी पहाड़ी नेपाल की प्रधान भाषा है इंसीलिए इसका नाम नेपाली भी है। पहले, कुछ लोग, इसको परवतिया या खसकुरा नी कहा करते थे परन्तु भव तो इसका नाम 'नेपाली' प्रचलित है, और आधुनिक काल में नेपाली में काफी साहित्य प्रस्तुत किया गया है। केद्रस्थ पहाड़ी गढ़वाल तथा कुमाऊ में बोली जाती है । इस नाघषा में साहित्य का निर्माण होने छगा है। लिपि तागरी ही है। पश्चिमी पहाड़ी बहुत सी पहाड़ी बोलियां का सनृह् दै। साद्दित्य भी कम ही पाया जाता है, पर ब्रामन्गीत काफी हैँ और क्षेत्र भी विल्तृत हैं। सिरमौर, शिमला, मंडी, चंबा, मदरवार आदि इसी के क्षेत्र में आते हैं। इसकी लिपि प्टकरी” कही जाती है । नेपाली को नेपाल सरकार की राजभाषा होने का गौरव के प्राप्वत है। साहित्यक जीवन में नेपाली उच्च हिंदी का प्रतिबंब कहा जाता है| भानुभक्त एक प्रसिद्ध कवि हुआ हैं जिसकी नेपाली रामायण बह॒त प्रसिद्ध हैं। अन्य दो भाषाओं को राजक्रोय प्रोत्साहन इतना नहीं मिला अतः उनका विद्यय विकास भी नहीं हुआ । हिंदी का प्रचार इन क्षेत्रों में काफी बढ गया है फिर भी काफी लोग इन भाषाओं को बोलते हैं । ६/२/३/१६ यद्यपि काइ्मीरी “आये भाषा नहीं है फिर भी इसकी कुछ चर्चा आवश्यक है । काइमीरी का संबंध आर्य उपपरिवार के दर्द वर्ग से क्रमचः संस्कृत, फारसी और ठद का प्रभाव पड़ता रहा है! मीर के बनेक् संस्कृत पंडितों की बात तो सब लोग जानते ही हैं। अपनी पुरावी झारदा लिपि को छोड़कर काइ्मीरी ने फारसी-अरबी लिपि को अपनाया उच्चारण को हष्टि से यह भाषा कठिन है। काइमीरी में काव्य-रचता हुई है, ग्रद्म-साहित्य इतना नहीं मिलता । यह भी संविधान-स्वीहछृत | /009 ु हल "प्‌ ०॥ न्‍्थ | ४0|* तप हि जा जन्मे. दाल | अपमनके भारत म दांत जाने दाल मैं भारतीय आय भाषाओं के आाधुनिक रूप का किचित परित्रय करा दिया गया है । अधिक्त परिचय के लिए प्रियसेन का व देखें या चदर्जी की बंगाली माया की उत्पत्ति और विक्वास की भमिका पढ़े | वणशित नापाकं क्रा क्षेत्र साय दिए गए चित्र से त्पष्ठ हो जाता हैँ । सुविवा के लिए चित्र में 'सिधी', लहुंदा बौर बंगला भाषाओं के क्षेत्र भी दिखा इन क्ेत्रा का बहुत सा भाग सब हिंदस्तान का अंग समाहित हो भया है। दा /तिो रच) ८१ | 2 न्न्न् न [ है 4) प्रयसव और चर्दर्जी के वर्ग काया स्पष्टीकरण कीएि द्ड (२) टिप्पणिया लिशिए--- ( 4) राजस्थानी, (॥) पश्चिमी हिंदी तथा (7) बंगला । (३) बताइए--- ( ) उत्तर भारत को कित-किन भाषाओं में अधिक साम्य है ? (9) किन भाषाओं में अधिक वेपम्य हैं ? (7) इन सभी भाषाभों को एक ही वर्ग में मानने का क्‍या वरण है ! (७ हिंदी की विमाषाएं या ग्रामीण बोलियाँ ७/१ हिंदी के कई कर्थ हैं । कुछ लोग तो हिन्दुस्तान के रहने वालों को ही हिंदी कहते हैं । 'हिदी-रसी भाई-भाई आदि नारे सुने जाते हैँ । जब कोई जहाज भारतीय मुमाफिरों को लेकर पोर्टतेयद या अदन पहुंचता है अथवा स्वेज पर रुकता है तो उस जहाज के सभी यात्री (हिंदी! कहलाते हैं। पर तापा के प्रसंग में (हिंदी का अर्थ सीमित होता है। यह प्तीमाएं भी बनेक प्रकार की हैं--- (१) हिंदी--पश्चिमी हिंदी खडीबोली का प्रचलित रूप । (२) हिंदी--पश्चिमी हिंदी । (३) हिंदी--पर्िचिमी हिंदी + पूर्वी हिंदी । (४) हिंदी--मध्यदेश की भापा अर्थात्‌ दिल्ली + उत्तर प्रदेश + हरियाणा + हिमांचल प्रदेश + राजत्थान + विहार + मध्यप्रदेश की भाषा | (५) हिंदी--संपूर्ण भारत की भाषा | इन समी का अपनान्अपना महत्त्व है। हिंदी का जो रूप प्रचलित है वह पश्चिमी हिंदी की एक बोली, विभाषा या ग्रामीण बोली«“खड़ीबोली” का ही रुप है। 'हिंदी की दूमरी सीमा पश्चिमी हिंदी तक मानी जाती है, क्योंकि पूर्वी हिंदी को कुछ लोग विहारी में शामिल करते है | हिंदी का अधिक विस्तृत रूप उस सारे क्षेत्र में बोला जाता हैं जो पश्चिमी ओर पूर्वी हिंदी का क्षेत्र माना जाता है। व्यवहार की दृष्टि मे, ओर अब संवेंधानिक दृष्टि से भी 4हदी' उस क्षेत्र की भाषा है नो उत्तर प्रदेश और साथ ही दिल्‍ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, विहार जौर मध्यप्रदेश में व्यावहारिक रूप से प्रचलित है--बहां की राजभाषा हिंदी है, शिक्षा संस्थाओं और कचहरियों में भी इसी मापा का प्रयोग होता है । संविधान में जो बात स्वीकार की गई है, उसके हिमाव में हिंदी सारे देश की भापा हैं और बहुत स्थानों पर तो पहले से ही यह मान्यता रही है कवि हिन्दुस्तान के लोग और सापा ' हिंदी? ही हैं । अब मी विश्व के मापा-मानचित्र पर भारत की भाषा प्रायः पहिंदी' ही बताई जाती है । ७/ हक है भमापा-शात्त्र में हिंदी को दो मांगों में पाया जाता है-- हिंदी > परिचमी हिंदी +- पूर्वी हिंदी । व्यवहार में कुछ लोग हिंदी ७ परिचमी हिंदी + पूर्वी हिंदी + विहारी + राजस्थानी । भी मानते है । परन्तु भाषा-विज्ञान के ज्ञाताओं में से प्रायः सभी ने इस वात का प्रतिपादव किया है कि 'विहारी” भौर 'राजस्थानी' दो बलग-अलग भाषाएं हैं ओर उनका वैज्ञानिक स्तर वसा ही है जैसा अन्य किसी आधुतिक भारतीय बाये-मापा का । सुविधा पूर्वक कार्य-संचालन की हृष्ठि से बिहार तथा राजस्थान दोनों में हिंदी को ही राजमापषा माना गया हे । राजस्थान बोर विहार में प्रादेशिक माषा के रूप में हिंदी ही सरकार भोर प्रायः जचता द्वारा मान्य है, और इस प्रसंग पर काफी विवाद देखा जाता है कि ये भाषाएं नहीं है हिंदी की वोलियां मात्र हैं। मैं इस मत से सहमत नहीं, बतः हिंदी का विवरण प्रस्तुत करते समय केवल उन्हीं बोलियों को शामिल करूंगा जो पश्चिमी हिंदी तथा पूर्वी हिंदी के अंतगेंत मातरी जाती हैँ । उपसंहार के रूप में राजस्थान की विविध बोलियों का संक्षिप्त विवरण भी प्रस्तुत कर दिया जाएगा । ७/३ परिचमी हिंदी की पांच बोलियां ( विमाषाए या ग्रामीण भाषाएं ) प्रचलित हैं :-- (| (3) खड़ी घोली ] के | (४) बाँगरू 5 डक | परिचमी हिन्दी है (7) ब्रजमापा ै) | | (४४) कन्नौजी # दूसरा वर्ग | (9) बुदेली है वोलियों के रूप में इन सभी का अस्तित्व है। ब्रजमाषा का मध्य- कालीन भौर सड़ीवोली का आधुनिक साहित्य किसी भी मापा के लिए गोरव के विषय हैं। वच्य त्तीव का बोली-महत्त्व ही माना जाता है । ७/३/१ राष्ट्र की मापा, राजमाषा बादि के रूप में खड़ीबोली स्थापित हो चुकी है। ब्रज की भाषा 'द्रजमाषा कन्नौज की 'कन्नोजी , बांगर की मापा 'वांगरू' थौर बु देलखंड की भाषा ुदेली' हँ। 'खड़ी वोली' किस स्थल, प्रदेश नगर पर नामांकित की गई है--इसका कोई उत्तर नहीं मिलता । कहा जाता है हिंदी-साहित्य में यह नाम पहले-पहले लल्लूडाल के लेख में मिलता है। मुसलमानों ने जब इसे अपनाया तो इसे 'रेहता' नाम दिया-रेख्ता का बर्घ होता है “गिरता' या पड़ता । क्या इसी गिरी या पड़ी भापा के नाम का ६७ विरोध सूचित करने के लिए इसका नाम “खड़ी बोली रखा गया ! या यह वरी' का विगड़ा हुआ रुप है। कोई बात निरचयपुबंक नहीं कही जाती । कुछ छोग इसे 'अन्तर्वेदी' कहने के पक्ष में थे, परन्तु जब 'खड़ीबोली नाम्र चल पड़ा है तो ठोक है । वेत यह बोली मेरठ, विजनौर, मृजपफरनगर, सह्दारनपुर क्षादि के आस पास बोली जाती है--इसकी सीमा किसी प्रकार दिल्‍ली तक भी पहुच जाती है। पर थाज यह संपुरा देश को भाषा हैं। इसके कुछ रूप डां० उदयनारायरण तिवारी की पुस्तक से नीच दिए जा रहे हैं -- ग्रामीण खडी बोलो : कोई वबादसा या । साव उसके दो राण्यां थी | एक के तो दो लड़के थे ओर एक के एक । वो एक रोज अप्नी राज्नी से केने रूगा, 'मेरे सामने कोई बादसा है बी ? सो बड़ी बोली के राजा तुम समाव ओर कोन होग्गा, बेस्सा तुम वेब्सा और कोई नई । छोट्टी से पुच्छा के तुम वी बतढा मुज समाव कोई भी राजा है के नई ? कि राजा मुज्से मत बुज्झो । हिन्दुस्तानी : सनू १८५७ ई० के गदर में खास करके सिपाह्दी छोग शरीक हुए ये | कहीं-कहीं, जैसे कअवब में, आम लोग मी धरीक हुए थे। उन्हें डर इस बात का था कि अग्रनेजी सरकार उनकी जाति को नाश करने की कोशिश कर रही है। उनका मतलब यह कम्रीन था किवे अग्रज़ों से इस देश को जीत लेबें और अपनी रियासत कायम करें । साहित्यक हिंदी कुछ विद्वानों का यह आशक्षेप हैं क्षि शरत ने अपनी कृतियों में उन्हीं पुरुष-पात्रों को चित्रित किया है जो नारी-हुदय की महत्ता का शिकार हो चुके हैं; और यह बनुचित है । परन्तु यह धारणा बहुत अधिक समीचीन नहीं कही जा सकती क्योंकि बाज के सामाजिक जीवन में भले ही पुरुष की मद्धत्ता नारी पे कहीं अधिक बढी-चढी हो, फिर भी स्वयं पुरुप के ही निर्माण में नारी का बहुत बढ़ा हाथ है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । उ्दू दमारे पेठ की चामराद सड़कों की मरम्मत हो और हमारे हटे हुए दिलों पर भी इमारतें चुतवाओं। हम मी पुराने जमाने की निद्ानियां हैं हमकी भी जिन्दा आसार कदीम में लोग समझते हैं। हमको भी सहारा दो मिदने से बचाओ खुदा तुमकों सहारा देगा ओर बचाएगा | द्द्ध हिंदी के ये सभी रूप चलते हैं, पहुला बोलने में और वाकी तौन॑ लिखने में या सावंजनिक भाषणों में । पहले का वातावरण घरेलू है और अन्य का सावंजनिक | ७/३/१ खड़ीवोली का महत्त्व ती आधुनिक काल में इसका प्रतिपादित हुआ है, कि हिंदी-साहित्य के वर्तमान युग को कुछ लोग 'खड़ीबोली काल' कहना पसंद करते हैं, वैसे खड़ीवोछी के भम्ृने तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी में ही मिल जाते हैं। १६ वीं शताब्दी में भग्रेज अधिकारियों द्वारा खड्टीवोली मद्य के कुछ प्रयोग कराए गए, और भाज तो यह बोली एक बहुत ही समृद्ध रूप में लक्षित होती है । इस बोली के कई नाम सुनाई पड़ते हैं । दखनी-दिल्ली की वह बोली जो दक्षिण में लेजाई गई । रेख्ता-दखनी का मिश्रित रूप । स्त्रियों के लिए यही बोली रेख्ती हुई । झ्ाही पढ़ावों में फारसी से प्रभावित होती हुईं यही उ्ू बनी । हिंदी-हिंदुओं द्वारा प्रयुक्त वह बोली जिप्त पर फारसी का प्रभाव नहीं था। हिंदी-उद्दू तथा शब्दों की दृष्टि से विदेशी हिन्दुस्‍्तानी* भ्षग्र जों के मस्तिष्क की उपज है। लिपियों की दृष्टि से उदू फारसी-अरबी लिपि में लिखी जाती है, हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है । एक समय था जब फौज में रोमन लिपि को अपनाया गया था, आज भी कुछ लोग इसके समथंक हैं । ७/३/२ बांगहू हिंदी की एक अन्य विभाषा है। इसको ही जादू और हरियानी कहा जाता है-दोनों नामों के कारण हैं। इसके बोलने वालों में जाटों की संख्या काफी है, और यह हरियाणा प्रान्त की भाषा है। अब तो हरियाणा नाम का अलग राज्य बनगया है और कुछ लोगों को कल्पना विशाल हरियाणा' की भी है | बांगह का रूप दिल्ली में भी प्रचलित है, पर इन दिलों दिल्‍ली की भाषा इतनी विचित्र है कि उसमें पंजाबी, बांगरू, खड़ी बोलो आदि कई भाषा-विमापाओं का मिश्रण होने लगा है । पर जब दिल्‍ली पर भाषाओं का इतना अधिक दवाव नहीं था तब राजधानी के आसपास बांगरू ही सुनी जाती थी | हिसार, रोहतक, करनाल आदि तो इसके क्षेत्र हैं ही। कुछ लोगों का अनुमान है कि निकटवर्ती राजस्थानी, पंजाबी और खडी बोली तीनों का यह खिचड़ी रूप है। ऐसा कहना समुचित प्रतीत नहीं होता, इन भाषाओं से प्रभावित कहा जा सकता है, वेसे बांगहू का अपत्रा स्वरूप है। भारत को भाग्य- रेखा को कई बार अंकित करने वाला पानीपत क्षेत्र भी इसी के भंतगंत है और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में इसके स्वरूप को वशणित-व्यवस्थित करने का काम भी चलता हैं। जगदेवर्सिह बांगरू भाषा के अच्छे विद्वान है और उसके स्वरूप का वर्णन सफलता के साथ कर चुके हैं । व्यजनों क्रा द्वित्व यहां भी देखने में आता हैं | करनाल जिले का एक उदाहरण प्रस्तुत है-- ६६ एक माणस-क दो छोरे थे। उनन-मैं-ते छोटटे छोरे-ने वाप्पू-ते कह्या अक वाप्पू धान-का जौरा-सा हिस्सा मेरे वांडे कावे-्स मन्‍्ते देव्दे । तो उसनने धम उन्हें वांड दिया । अर थोड़े दिनां पाछे छोट्टा छोरा सब कुछ कट्ठा कर-क परदेस-ने चाल्या-यया बर उड़ अणा घन खोट्टे चलरणा-मैं खो-दिया। मर जद सार खो-खिडा दिया उस देस में वड़ा काल पड़ा भर कंगाल हो-गया | फेर एक साहुकार-के नोकसर छाग-गया। उसने अपने खेता-मैं सूर चरावण घाहल्या । 'ना के स्थान 'ण॒ भी दिख्लाई देता है-मास्स, चलण, जोरा, अपणा 'ड' से स्थान पर 'ड' मिलता है जेसे बड़ा के स्थान पर बडा | को के स्थाव पर "ते भी दिखाई देता है--'परदेस-ने । सर्ववाम के अनेक रूप मिलते हैं 'सू तू” 'तस्ते, थाने! । क्रिया, लिग, वचन आदि सभी के भेद देखे जा सकते है । ७/६/३ जहां खड़ीबोली और बॉगर का एक वर्ग है; वहां ब्रजमापा, कम्नौजी ओर दुदेली का दूसरा वर्ग है। जो लोग बाग ओर ब्रजभाषा को एक वर्ग में रखना चाहते हैं वे हुठ करते प्रतीत होते हैं। पश्चिमी हिन्दी को यदि क्षेत्र के विचार से विभाजित करें तो दो क्षेत्र आते हैं--उत्तरी और दक्षिणी | उत्तर में वाँगह और खड़ीबोली हैं तथा दक्षिण में अन्य तीन-- ब्रजनापा, कन्नौजी कौर दु देली (इसे कुछ छोग वु देलखंडी भी कहते हैं) | इन वोलियों में त्रजमापा बहुत ही मद्दत्त्वप॒र्ण है। यदि यह कहा जाय कि परिचमी हैँदी में साहित्य क्री मापा ब्रज ही रही है तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी | खड़ी बोलो का प्रचार तो अब प्तो-सवासौ सार से बढ़ा है। साहित्य जोर काव्य को माषा तो ब्रज ही रही है। हिन्दी-साहित्य का संपूर्ण मध्यकाल इसी की क्षमता से गोरवान्वित है। सूर, तुलसी, रप्खान, बिहारी, घनानंद बादि ने मपनी काव्य-माघुरी इसी भाषा के माध्यम से प्रवा हित की जो अब तक साहित्य- प्रेमियों को रसब्पाव कराती बारहो हैं। ब्रजम्रापा बोलने का प्रदेश दैसे तो ब्रजमंडल कहलाता है जिसके लिए कहा गया है--- ब्रज चौरासी कोस में चार गाँव निजधाम | वृन्दावत अह मधुपुरी बरसानों नेंदगाम |। परन्तु ब्रज का क्षेत्र काफी आये तक चला जाता है। कासगंज से आगे बदायूं तक इसकी झलक मिलती है। इसका विशुद्ध रूप मथुरा, आगरा भरतपुर, वोलपुर, अलीगढ़ आदि में मिलता है। ब्रजभापा को वहुत ही मधुर भसापा कहा गया है, 5 र कुछ नो मापा कहा पं है; इंदनी मघुर कि कुछ तो इसको हंपवश जनानी भाषा' कह देते णिर नरतपुर की ब्रजमापा का नमूना देखिए--- े एक जब के दो छोरा हे। और विन-मैं-ते लोई छोराबनें अपने दाऊ- ते कही, 'दाऊजी धन-हंब्तें जो मेरे बठप्रें आवे सो मो-कू देड । और वालनें कक ७६ अपनों धन विन-कूँ बाँट दियो । और पघनें दिन नाँइ बीते छोटों छोरा अपने बट-कू इकट्ठी ले-क दूर देस-कों डिगिर-्गययो और वहाँ लुच्चपनें-में अपनों धन विगार दियो। ओर जब वा-प-तें सब उठ-गयो तब वा देस-में बड़ो भारी जवाल पर्‌यो ओर वो भूखों मरिवे लग्यों । तव वो चल*दियों और वा देस-के एक रहवेजा-के यहां जाइ रह्यो। भौर वा-नें वा-कू' अपने खेतन-में सूअर घेरवे-पे कर-दियो । मथुरा, आगरा, अलीगढ़, वबदायू आदि सभी बिलों की बोलियों में कुछ परिवतेन मिलेगे । मथुरा की बोली में इसका रुपान्तर इस प्रकार होगा-- एक जने-के दो छोरा है । उन में ते लोहरे ने कही कि काका मेरे बट को धत मोए दे । तब वा ने धन उन्हे बटि करि दियौ। और थोरे दिनाँ पाछे लोहरे बेटा ने सिगरी घन इकठौरो करि के दूर देसन कु चल्यौं और वा जगे अपनों धन उड़ाय दियो। और जब सिगरो धन खर्च कर चुक्‍्यों वा देस में बड़ी अकाल पड़ यौ भौर वह कंगाल होन छागौ । तो एक बड़े आदमी के जाइ लगी और वाने वाए सूअर चराइवे कु अपने खेतन में पठाइयौ । ७/३/३/१ व्रृजभाषा क्षेत्र में 'र के स्थान पर परवर्ती व्यंजन का द्वित्व हो जाता है जैसे ८> 'उदद ; मर्दों > 'मह। व! 'ब हो जाता है ओर 'म! में मी बतलता हैं। 'वहां' ८> 'म्हां'। बहुवचन में "न बढाते हैं । 'छोरा' (एक व०) 'छोरान' (ब० व०) 'खेत” (एक व०) 'लेतन' (ब० व०)। 'ओऔका- रांत' को विशेषता दिखाई देती है--'चल्पौ', 'घर कौ', 'छोटों, पड़यी 'दियौ' । किसी-किसी जगह "मैं! के लिए 'हौ! या हूं का प्रयोग भी होता है। म॒झ् को! 'तुझ को” स्थान पर 'मोयः 'तोय ऐसे शब्द सुनाई पड़ते हैं । इसको”, 'उसको' के लिए 'याय', 'वाय' भी सुनाई दे जाते हैं। वसे इनके कई रूप है, जसे 'याय 'याहि' याए भौर वार्या वाहि वाए। क्मब्सम्प्रदान में 'कु, 'कू', 'कौं, 'क, 'कें' आदि मिलते है तो अपादन-करण में 'सों सू', 'तें', 'ते, भादि रूप देखे जाते हैं। विविधता बहुत है परन्तु ब्रजमाषा के महत्व का आधार मध्यकालीन हिंदी-साहित्य है । ७/३/४ कन्नौजी गगा के मध्य दोभाव की बोली है। साहित्य-रचना इसमें मी हुई पर साहित्यिक कन्नोजी और ब्रजभाषा में इतना कम अंतर है कि कन्नौजी में लिखा गया सपूर्ण साहित्य व्रजभाषा के भतगंत ही भा जात्ता है। कन्नौजी, 'कनोजी' दोनों नाम चलते है। 'काव्य-कुब्ज' ( ब्राह्मणों का एक वर्ग ) का विकसित रूप ही कन्नौजी है, कुछ लोग इसे 'कनवजी” भी कहते हैं। इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत नही है ओर कानपुर पहुंचते-पहुंचते इस पर दुसरे प्रभाव पड़ने लगते हैं । साहित्यिक भाषा के रूप में, जैप्ा पहले संकेत किया जा ७१ चुका है, कन्नोजी पडौस की द्रजमापा से दव सी गई है। चितामणि त्रिपाठी, मतिराम, भूपण ओर नीलकंठ त्रिपाठी नाम के चारों भाई इसी क्षेत्र के थे । ब्रजमापा औौर कन्नौजी में अंतर भी कम है। ब्रजभापा का “त्ष” कब्नौजी में क्षो' का रूप लेता दिखाई देता हैं। संबंध वाचक संज्ञाए' आकारान्त' ही रहती हैं एकारान्त नहीं होती (लरिका को-लरिके को नहीं) यह तथा बह जो! और “वी के रूप में पाए जाते हैं। भूतकाल में ऐसे रूप देखे जाते हैं-- 'गओ' (गया), दलों! (दिया), 'छओ' (लिया) सर्वनाम बह के रूप 'बरहि' हि, बा, बहु, तथा यह के रूप 'यहु', यिहु', 'इह', 'वौ' 'जी' आदि मिलते है । अपादान-करण कारक के 'से', 'सेती', सत्र, 'तें, “करि' आदि रूप उपलब्ध होते हैं । जिला हरदोई का उदाहरण देखें--एक आदमी के दुई लरिका ह॒ते । तेहि-मां-ते जो छोटा छरिका हुतो सो बपने बाप-पर कहन लागो कि जो दुछ्ू रुपया हमारे हींसा-को होइ तो वांटि देव । तब वाप-ने वाहि-के हींसा-कों रुपया वांदि दक्षो | तव छोटो छरिकां अपनों हींसा लेइ-के परदेसइ चलो-गओ भौर हुआ सव रुपया कुचाल-में उड़ाइ दओो । और जब बनाइन्के खरखीन हुई-गओ तब कुछु दिनन-के पीछू वहि देसब्मां अकाल परो। तब वहु केहु बढ़े अमीर-के दुआरे गओो । तब वहि-ने वहि-का खेतन<म्रां सुअरी चैरवे-पर करि दओ । शाहजहांपुर में मां का “महियां' देखने को मिरूँगा, पर कानपुर में मां ही मिलेगा । ७/३/५ वु देली अथवा धुदेलखंडी निश्चय ही बुंदेलखंड की भाषा है । बोलने वाले बुदेले कहे जाने चाहिए | बाँदा, हमीरपुर, जालौन, झांसी आदि इस क्षेत्र में बाते हैं। ग्वाल्यिर, मोपाछ, ओोडछा तक भी इसकी सी माए हैं । इसका ही कुछ बदला हुआ रूप दतिया, पन्ना, चरखारी, छिंदवाड़ा आदि में वोला जाता है। यहां के अनेक साहित्यकार जैसे केशव, प्माकर, पजनेस हिंदी- साहित्य में प्रसिद्ध हुए हैं परन्तु उनकी भाषा ब्रजमापा के अतर्गेत भाती हर; कृछेक पर बु देली प्रभाव अवध्य देखा जाता है। बुदेली में साधारणत: एक- रूपता मिलती है। व्यंजनों में 'ड* का र ( घौरा, दौरके ) ही! का 'ई! (कई>करही) मिलते हैं । “बेटी? का “विटिया' भौर “घोड़ा? का 'घुरवा' देखे जाते हैँ । और' के लिए 'ओर' मिलता है- हृष्टव्य है कि जयपुर में भी 'ओर' ही मिलता है। “अइबा' से अत होने वाले बनेक शब्द मिलते हैं-“वलडवां विरइवां' ख़ब्वां | संबंध कारक में मेरा! के ह्प ' के रूप 'मो-को! मेरो', पमोरो', ९ ़ि ० 7 कक 2० को लि] छ् मोवा आदि मलते है और 'तेरा! के रूप 'तो-को!, 'तेरो!, 'तोरो' प्तोना' बादि पाए जाते हैं । ७९ ध्ांसी जिले का एक उदाहरण प्रस्तुत है: एक जने-के दो मोड़ा हते । ओर ता-में-सें लोरेबने अपने दहा-से कई धनक्में-सें मेरो हिस्सा मो-खों देह राखी । ता-के पीछे ऊ-ने अपनों धन बरार दओ । विलात दिना नई भये हते लौरो मोड़ा सब कछू जोर-कें पल्‍ले मुलक चलो०गओ ओर हुना वा-ने कुकरमंन में अपनो सबरो घननगमा-दओ । जब बाते सब कछू उडा-द वेठो तब वा मुलक-में बडी काल परो और वो मांगनों हो गभो | ता-खो पीछे वा ने उस मुलक-के रहाइयन-में-से एक जने-के ढिगा रन लगो। वा-ते बा-खों अपने खेत में सुगरा चराबे-कै-लाने पठ-दओ । ऊपर के उदाहरण में यह भी देखा गया कि यत्र तत्र मध्यवर्ती है का लोप हो गया है--'लोरे' (लोहरे) 'रत” (रहन) ७/४ पश्चिमी हिंदी की पांचों बोलियों का, या कहिए विभाषाओों का, विवरण देने के उपरान्त पूर्वी हिंदी के रूप भी प्रस्तुत किए जा रहे हैं। जैसा बताया जा चुका है पूर्वी हिंदी की ३ विभाषाए प्रसिद्ध हैं-- (| ( $) अवधी (कोशली, बसवाड़ी) पूर्वी हिन्दीं 4 (॥) बघेली [ (॥) छत्तीसगढ़ी पूर्वी हिंदी अद्ध मागधी से विकसित हुई। इसमें मागधी तथा शौर सेनी दोनों की विशेषताएं देखी जाती हैं। सीमा की दृष्टि से उत्तर में सीता- पुर और दक्षिण में काकेर हैं। इधर परिचम में उन्‍नाव और पूर्व में सुलतांपुर, फैजाबाद है। बोलियों की हृष्टि से पश्चिम में कन्नौजी ओर बुदेली है तथा पूर्व में भोजपुरी । उत्तर में पहाडी भाषाएं और दक्षिण में मराठी । इन तीनों में अवधी बहुत महत्त्वपूर्ण है। ७/४/१ 'अवधी भ्वध की भाषा है। अवध का प्रचीन नाम 'कोशरू' भी है अत: इसे 'कोशली' भी कहा जाता है। बैसवाड़ भी इसी क्षेत्र का साम है अतः बेसवाड़ी' शब्द का भी प्रयोग होता है। लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, फतेहपुर, अयोध्या, इलाहाबाद में यह भाषा बोली जाती है। कुछ लोग इसे केवल 'पुरविया या 'पूर्वी! भाषा भी कहते है । साहित्य की हृष्ठि से इसका अतीत भी इतना ही गौरवपूर्ण रहा है जितना ब्रजभाषा का । काव्य की भाषाएं ही दो थी--उधर ब्रजमाषा और इधर अवधी । दोहा, चौपाई और बरद॑ के लिए तो अवधी का कोई स्थानापन्न भी नहीं है। तुलसी का रामचरितमानस अवधी में ही लिखा गया, जायसी का पद्मावत भी इसो में है। व्याकरण की दृष्टि से यह पश्चिमी हिंदी से भिन्न है। साहित्यिक और बोली के उच्चारणो में भतर लक्षित होता है--'तेहि' ०> 'त्याह', 'मोहि' ८> 'म्वहि', एक देस' ७३ ०७ # ५ कक द््या झूतका वकन्‍न्‍ममुकल, झड्न्धय पुरुष सिल्कलक, अआयाब्यप * अधरिकलन--. अ्आन.... /नमम->+००००म+ -अधमम.. या पा याक द्यास । भतकारू अन्य पुरुष का क्रियारुप एक वचन में इस या हा कक थी संत को 8, अत) कल टू छ्क्क न 0 टी न प में चया बहुबचन इन या (ए में अन्त होता है । (एक ब० देखिसि, देखे-- बहु व० देखिनि। कर्कारक का चिह्न ने इस बोली में नहीं मिलता । सर्वे- नामों में संबंधकारक के रूप 'मोर', 'ोर, ओकरों, तेकर',, केकर' आदि कण # ग्रिलसे श् बडा” कहन्म- पर्दा ब्त्ी के कप अऑष्णक अपार सफर लेजर न्ण््ट मिलते हैं क्षत प्राय: “र' में होता है। इसी प्रकार बहुबचन में हमार! 'तुमार', ठोहार', “इनकर', “ओनकर), 'जेवकर', तिनकर', 'केनसक्र” आदि रुप मिलते हैं। होता! छिया के वर्तेमान काल के रुपए बाद, चादई, वांदे, ांदी', ओआ' बहे अहुई' अहीं अहई' ज्ादि मिलते हैं। भतकाल में में अन्त होते हैं--रहिल', देखिस', (रहित, दिखिन! आदि मिलते हैं। ऐसी क्रियाएं मी मिलती हैं--दयान! (दवा की), “रिसान! (रिस था क्रोध किया) मविष्यकाल के प्रथम, द्वितीय पुरुष में वा (देखव, करव) | फंजाबाद प्रें बोछे जाने वाली अवबी का नमना नीचे दिया जा रहा है-- न्र््ू / एक मनई-के दुइ बटवे रहित | बोह-माँ-से ऊहुरा अपने वाप-से कहिल दादा घवृतत+मा जदबनस ह्मां है] 7३॥ द रा लागात* पथ “१ 3९) द्म-का दर उ्इ 5 व ८] बाँद-दिहिन । आउर ढेर दिन नाँही बीदा की लहरा बेटवा आपन घन छुचारू-मां लुदाव पड़ाय दिद्वित । बदर अब सम्म गंवाय डारिस ओह देस-माँ वड़ा काल एक भल-मनई के पाछे छाग मे । क्र दुबद व हानका अपने खतन ना रु चरावनब्क -दिहि स्त्‌। आपने धन उन-का 2 | ञधि | तु संद बस चबद्ारूकऊ प्रदत चल वे बनाय दलिद्र ह्रोय-गा जज बट के अल जा प्ये पेत्य लिद्र ट८/४-०। ॥54 थ्‌ आई दस अमन अममकनमामक कमाना जप. न्‍क पट >नक,.. हम वात आआाकक.. :ढ >भुनम्मक प्रकार खेतों लाएगा रक “चउचऊ के गाव मे यहा दांत इस प्रकार सता आाएगा--- प्‌ मोर हीमसा वांधि दें । तव बाप ओहि-का हीसा बांदि दिहिस। किछ्ठ दिन दाद _अकमबकतग. सदुकनाक -2०-न्‍्पक- दप्या गाय, पल ९ माफ अमन. सम्मान. अन्यधाक नमन, + लिसर जनक गा दो हि हा छू ऊकू संद इपया खलन्क बंदी दर-के मलक-मां सिसर-झगा | दाद हू आपने रुपया सब कुचाल-माँ उद्ाव-दिहिस | ते पाछे जोहि-के तीरे कुछ नाहीं राखिस । ऊः के कारक चह्ना न्ह्प (४ थी जा. # 2९, के १ हर सूप द्धदलाी बक ०३ ६ ४ ६ कि, 9०० ममिक ट््स [ प्रकार 2 ४ हा 5 ध्ट “०४! जे िट। रे ली हट । इज हद द्धघलां तल 3४ द्रापा हक इ्ल्पे्ला सु द्सो अनशन 235» वजन 3 व कल े उन्‍्यन्‍क-अक + पक, >> +०- 8 कक व््क है “बम ला क््न, ० 5 ज। [ इस ते वघलचदा भा द ह्ञे ह द्रौ रच क्र इस र वा हज हा दिला खत: इस रवाइ हा कहां जता ट्‌ | फतहपुर 7 तय २; हमी रपर मर ते यह्‌ (९४ बु देली मे विलीन होती प्रतीत होती है । रीवाँ मे इसका श्रच्छा रुप पाया जाता है । यद्यपि रीवाँ के महाराजे साहित्य के प्रति उदारता के लिए प्रसिद्ध रहे परन्तु वधेलखण्ड में कोई वडा साहित्यकार नहीं हुआ । तवानसेन इसी क्षेत्र का था । महाराज विश्वनाथर्सिह तो स्वयं साहित्यकार थे, उन्होने 'सिंह वधेला' उपनाम से लिखा । इनका आनन्द रघुनंदन' प्रसिद्ध ही है । व्यावहारिक दृष्टि से बघेली तथा अवधी एक ही है । व्याकरण में भी कुछ विशेष अ्रतर नही हे । ग्रियसंन ने दो श्रतर बताए है--(१) क्रियाओ्रों के भूतकाल मे परसगौंय 'त' श्रथवा तै' जोडना वधेली भें देखा जाता है, (२, वधेली ने 'व' को, जो भ्रवधी के भविष्यत्‌ काल के प्रथम एवं द्वितीय पुरुष का विशिष्ट तत्त्व है (देखव, करव, चलव, आइव) छोड दिया हे, और इसके स्थान पर 'ह' ले लिया है। (अवधी देखवौ ०० बघेली देखिहौ) मै, तू के लिए भर्यों, तय सुने जाते है, और जा' तथा सो के लिए 'जऊन 'तऊन' । संवंधकारक मे 'म्वार', त्वार', 'यहिकर', 'वहिकर', '्यहिकरि', 'क्यहि करि' प्रादि का प्रयोग होता है । हुआ' के लिए 'भयो', 'भयेस', 'भ' आदि देखे जाते है । 'होव', 'जाव', देव”, लिव” भी यदा-कदा सुने जाते है | बाँदा की बघेली का नमूना : कौनौ मडई-के दुइ लरिका रहै । उई्द लरिका वाप-से कहिन कि अरे वाप तै हमरे हीसा कै जजाति हम-का बॉट दे । तब वाप आपन जजाति दोनहुंन लरिकन-का वॉट दिहिस । झौ थोरे दिनन-माँ ह्ुतकंउना बेटोना सब ड्यारा बॉटुर-क लिहिस औ बहुत दूरी परद्यास-का निकरिगा और हुआ आरपन सब रुपया कुकरम-माँ खरच-क डाइस । औ सब रुपया वहि-का खरच होइगा औ वा मुलुक-माँ बहुत बड़ा दुर-दिव पडा औौ वहि-का रोजीना-के खरिच-की तंगई होय लाग । तबै वा मुलुक-के एक रहस्या-से जाय-के मिला जौन वहिं-का अपने ख्यातन-माँ सुप्नरिन चरावे का पठवाय दिहिस । ७/४/३ छत्तीसगढी, लरिया, खल्टाही आदि नामों से सूचित यह बोली रायपुर तथा विलासपुर मे प्रधानत. सुनी जाती है। छत्तीसगढ की भाषा होने से यह छत्तीसगढी कहलाई । बालाघाट जिले के खलोटी' नाम से 'खल्टाही' तथा 'लरिया प्रदेश! के कारण 'लरिया' कहलाई | छत्तीसगढी में भी कोई विशिष्ट साहित्य नही है । इसके दो व्याकरणिक रूप विचित्र मालुम होते है। सम्प्रदात- कर्म का चिह्न ला तथा अपादान का ले, और बहुबचन का प्रत्यय मन । (मनुख मत > बहुत से श्रादमी, लइका-मन-के ८ लडकों-का) ला' 'लिए' का स्थावापन्न प्रतीत होता है। सर्वनाम में मैं, तू का संबंधकारक मे 'मोर' 'तोर' होते है । बहुवचन कर्ता में 'हम-मन', 'तुम-मन' देखे जाते है। 'सो' 'जो' के रूप की ६३२ | वन जाती तो उसका क्या स्वच्य हाता, क्या क्षमता होती आर क्या परंवरा 4 हि #छ हा के... अम्य हा कं. ज्ः दालया ना इत्यक् जाया का हाता इ--नहता दा भा अनवकत 4 ट्र पर खट्टीबोली को स्वीकार कर एकरूपता का अब्न हल हुब्रा हैं । इसना ही क्यों भारत में तो अनेक मायाए सी है परन्तु हन्‍्दा का राजनाया क रूप में स्वीवार क्रिया गया है । बदि हम सक ऐसी भाया बनाते जिससे सभी मआायानजाया सलस्ट द्वात दा थह चंद साया अशधन ता खलया हद्ढा आन याद्र कंद्वा रंयरा--बचे श्् न | | सनी विज्वार्जील व्यक्ति सोच सकते हूँ । इसी प्रकार जब शकस्यता को बात भ | कर अग्न- हु क् डा रथ हा स्ट ? आ नि होली कड़ी जाती है तो उसका केवल बढ़ीं श्रनिगप्राय॑ हू कि किसी प्रचलित समृद्ध छोची को स्वीकार किया जाए आर सार प्रान्त में उसका प्रचलन हा । यहाँ ना बहा निज्ॉन्च 'कल्का-- पूल मानवों ट्गा आऊआतया डक 5. का बोलने बाला ह क्र व जजियादर >नक- की लो क्‍फ-+७०» द्वान्त मानता पट गे कि कौनसी बोली बोलने बालों का प्रतिशत अधिक ह और इस द्रप्टि दर मारवादाी क्का नाम है विचाराथ श> ्प्यन ओर इस द्वाष्ट से मास्वादा का तनास हा विदच्ाराथ उस्चित ह्वाता है | साववाड़ा द्वार बव्रतनापा दा जा पअब्न उपास्चत हा ह्टो जाएगा उन छा-माषा के निद्वान्त द्वारा सलभादथा इ०->क नाता आर्थिक आह सझना ब्मकत ० द्विदी का : साक्पदूजााण्यण्-्मययूक न, सुलनाया जा सकता हू, परन्तु जब तक यह्त नहां हाता हु के द्वारा काय तरल डक न ह-/ शराज़क्ाय हार ू- कै --०- पकान्या भाषा (०८ मकर पृद्ध पुर ७ आधाणआाक हैँ. म्बि अन्‍न्‍गकान कक कर प्छ च्तनलन दी रहा है, और हो सकता है राजक्रीय भाषा के पद्र पर यही स्वित रह ओर राजस्थानी साहित्व-सर्जन के माध्यम से आगे बड़ । राजस्थानी वोलियो के कुछ अवतरख नीच दिए जाते हैं--- मारबाद्धी : एक जिसे-रे दोइ टावड्ा हा । उदा माँव सू सैनक्ति आडइ आप-र वाप-ते कृथौ--वावोौसा मारी पॉती-री माल आते जिकौ मे दिरावो । जे उस्य आप-री घर-विकरी उद्यान वाँद दिवी । है द्ाता। ग जणा-क दो बेटा छा वा में स्‌ छोटक्यों आप-का बाय-न ख दादाजी धन में सू जौ वांटी म्हारे वाट आवे सो मूर्न दयो। वो आपकी घन बाने बांठ दीन्यू । मेवाती : कही ब्रादमी-क दो बेटा हा उन मैं ते चोटा-ने अपना बाप-ते कही-- वावा बन मैं ते मेरा बठको श्ात्ें सो मेने बांट 5 बेह ने अपरा घन उनननें बॉट द्र्यो । मालवी : कोर्ट आदमी के दी छोरा था उननमै-से छोटा छोरा-ने ऑ्रौ-का बाप से क्रिया कि दाब जी म्ह्ा क॑ म्हारो घन-को हिस्सों द-लास द्वीर बन उनन-मे अपना मालतन्ाल को बाँदों कर दियां। | 9७ कुछ ऐसी ही स्थिति विहारी की है । विहारी की दो बोलिया-मैथिली और भोजपुरी तो बहुत ही समृद्ध बताई जाती हैं । मैथिली और मगही में काफो समानता हैं और कुछ लोग तो यही उचित समझते हैं कि मगही को मैथिली की एक बोली माना जाए । मैथिली ने अपनी साहित्यिक परम्परा का निर्वाह आ्राज तक किया है और कई विश्वविद्यालयों में इसे मान्यता भी प्राप्त हैं | विद्यापति का नाम कौन नहीं जानता--मैथिल-कोकिल यही महाभाग हैं। आज भी मैथिली में उपन्यास, निर्बंब, कहानियां, कविता आदि लिखे जाते हैं और कई मासिक पत्र भी हैं । जयकान्त मिश्र का 'मैथिली-साहित्य का इतिहास पठनीय हैं। भोजपुरी के बोलने वाले पंजाबी जैसे ही उत्साही होते हैं, उन्हें श्रपन्ती वोली का गव है, यद्यपि साहित्य की हप्टि से यह गतिशीलता उतनी वेगवती प्रतीत नहीं होती । भोजपुरी भाषा का अध्ययन अनेक विद्वानों ने किया है यथा-सिर्द्ध श्वर वर्मा, उदयनारायण तिवारी, विश्वनाथप्रसाद । राहुल सक्षित्यापन ने तो कई नाटक भी भोजपुरी में लिखे। पर साहित्यिक ज्षेत्र में भोजपुरी की गतिविधि मान्यता प्राप्त करने में असमर्थ रही है, इस ज्षेत्र में ती मैथिली का कार्य काफी श्रच्छा हुआ और हो रहा हैं । राष्ट्रभापाओं में जामिल करने के लिए मेंथिली का पक्ष-प्रतिपादन भी होता रहा हैं, पर कई और सवाल खड़े हो जाते हँ--- जैसे ब्रजभापा और अवध का साहित्य भी बहुत समृद्ध हैं, इनके बोलने वालों की संख्या भी वहुत काफी है। और वीरे धीरे हिंदी अपना विस्तार ही कर रही है, ऐसी स्थिति में साहित्य-प्रवान नापाए भी राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यतः प्राप्त नही कर पाती हैं। इसमें तो संदेह नहीं कि जो त्याग राजस्थान ओर विहार के निवासियों ने हिंदी के पक्ष में किया है उससे हिंदी का पक्ष बहुत प्रबल हुआ है। इन प्रान्तों को जामिल कर लेने से हिंदी-वोलने वालों की संब्या बहुत काफी हो गई हे और हिंदी को बल मिला है । हिंदी और इन भाषाओं का प्रश्न काफी जटिल है, पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि यदि प्रान्तीय भाषात्रों की दृष्टि से इन्हें राष्ट्र भाषाश्रों में स्थान नहीं मिलता तब भी इनकी साहित्यिक क्षमता गौरव का विपय है और एक ऐसे वातावरण का निर्माण होना चाहिए जिससे इन भाषायरों की साहित्यिक-परंपरा वरावर बनी रहे और इनकी साहित्यिक क्षमता कुद्ित न हो | राजकीय आ्राश्रय आवश्यक प्रतीत होता है । विहारी की तीनों वोलियों के रूप इस प्रकार है-- * मंथिली : वनों शी क्न छ् मै; न्निद शिया 2 है रे कोना मनुख्य-क दुई बेटा रहें-न ही औहिसां छोटका बाप से कहल- श्छे कु... अरे # - सम्पति-म में जे हमार हिस्सा होय से हमरा दियह क्य ८ संगही : ऐकू झादमी-क दुगौ बेटा हलथीन उन कन्ही मैं से छोटका श्रपन बाप-से कहल-ग्रक के ऐ बाबू-जी तौ-हर चीज-वत्स मै से जे हमार बखरा हौहै से हमरा दंदउ तब ऊ श्रपन सव चीज वत्सु उनकनन्‍्ही दूनौ मै वॉट देल-भ्रक । भोजपुरी : ऐक आदमी का दू वेटा रहै छोटका अपना बाप से कहल-अस की ऐ वावूजी, धन-मै जे हमार हिस्सा हौ-खे से बॉट दि तव ऊ आपन धन दूतो के बाँट देल-ग्रस । पड व कि ..० शत 4 4९ “६5८४९॥ भाषा बन काल (5 (॥। बन पद हैं-3। हिन्दो का विकास बातें प हु क्र्छुद कोड वाल पिला-वशानन+नपज. #*4 -]॥ कं दुषरा 2. ८याहनम-न--ानक ० >ा-क कान य (5: अमन श कु न /0/ ट 9 ४ /९ विकास, बटन नयला पन्ना भनली चल उसका वि जिसमे क्र जप भ् होना है हाता हू # ााााणणणाणाधणा 7 की जापनन अपना रमन श्र आओ का हु 53 0! (| + ६६] श्र प्‌ न्श््ख्ड्डि सा हर कह है: हुए | हारा के मानवी विकास _बकरगर०कणक- ञ्द ७. माम्मभाकन्माुका, 2 | विकास ४ 5 | क] रा | | ५ ॥ +2>पीजतल अब 7५॥ हक 445१: 3५।*। सा ब्कक झुछ रत हूं, आपके अ छः $ घर, कै कई 4 ए००-+ ०5 >> जय और कक न अंदर पााधाद खापका ओआइए नदी, 5५! [जे इन जन >5० ११३ २4॥5 2344५ |] अननभभनकननरनननममाज पर. का दा क्जि क्क+ ई पीर जज ।च हि है बा डे चल गा कि प्र १ ॥)। $ द | हज पर का भा व्य ४ हक 47 कि पं पे ॥७९/ ता 0 ८ (५६ |. 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कुत्ता ॥| इसमें तथ्य इतना ही है कि हिन्दी में जो क्ृतियां प्राचीन मानी जाती हैं उनमें खड़ी बोली के उदाहरण उपलब्ध होते हैं। ८/४/२ मध्यकाल में खड़ी वोली के रूप यत्र-तत्र पाए जाते हैं। इसमें साहि त्यिक रखना नहीं की जाती थी, क्योंकि लोग इसे मुसलमानों से संबंधित मानते थे, फिर भी एक जीवित भाषा होने के कारण इसके रूप अ्रवम्य देखे जा सकते 3 ५ हफकी-य द्विद्वी (-क अबचदा खड़ीवोली बल क्का साहित्यिक चदलवीं 2524 हें वैसे द॑६ अग्स मे हवा अवदा खड्ावाला का साहातत्यक प्रयोग च॑ दिहृ ा्३ अधारदहवा 2 8: शताब्दी से प्रारंन हो नया था, किनत उत्तर भारत में अ्रठारहवीं जताब्दी पहले इसका अचलनब चहा हा सका। हैछ आर १६वाँ सदी में सड़ीवोली ३ के उद ऋूप का परिमाजिन स्वच्य व्खाई देता है। खरडीवोली को विकसित न्थ ने का अवसर नहीं मिला, क्योंकि काव्य की भाया इस युग में दो ही थीं ह। ब्रज़माया आर अवयी | गद्य का प्रचलन कुछ विजेष था ही नहीं, अतः खड़ी वोली की रचनाएँ दिखाई नहीं देतीं। एक प्रकार से वह कहना चाहिए कि प्राचीन ओर मच्य युस में खड़ीवोली के जो रूप विविध रचनात्रों में जहां-वहां मिल जातद न्‍्भे प्रासंगिक हैं, रचना का स्वरूप खड़ीवोली का नहीं है । कहीं कहीं पहैं। थे दोनों युग खंडीवबोली «० 27- मम नहीं ला यह कम्पक बोली त्तो धमकी इन 32: ग्रामांग कमल व्यक्तियों ह द्वारा पलक हा खंड़ादाला के न हु॥ 44हु काला ता अयन द्ाात्र म ग्रामांग व्याक्ष्तयों द्वार ९ ज३ ट्‌ ल्‌्‌ 5 /४/१% कित्तु १८०० ई० के पत्चातू भाषाओं के विस्तार में एक वड़ी टना हुइ आर यह था खड़ीवोली: का विकसित होना । १७५० ई० तक पूरा 5वव्थवजञ अग्रछा के आवकार म आगया था. उबर बंगाल में उनका आवधिपत्य अग्नर्ज़ों ने अपने कार्य के लिए खडीवोली को पकड़ा और इसका प्रयोग गद्य में कराया जाने लगा | तद भी यह किसी की हिम्मत नहीं होती थी क्रि पच्च ने हड्वोली का प्रयोग किया जाए। यह स्थिति तो १७वीं शताब्दी में काफी आगे चल कर उत्पन्न हुई । और आज तो यह स्थिति हैं कि खड़ीबोली के अतिरिक्त कविता में अन्य किसी का प्रयोग हास्य-ब्यंग्य के रूप में ही किया दल न 8 जाता है, भिप्द भाषा तो खड़ीवोली ही है, चाहे गद्य में हो या पद्च में | खड़ी- बोली >> रडारउ5 हे फॉाट कॉालज अजय का नाम नहीं मउलाया बोला के प्रसंग ने फोट विलियम कलिज का नाम न हा भुलाया जा सकता। वहाँ नहर बुक “ऋछ €7 ४ 7 अमर आर बरकंतों कमान ० न मगाकनम्माकन्कापक, मिश्र ह5%- पर नासिकेतोयाल्यान' कक हुक लल्लूलाल न प्रशगामर और सदन मिश्र ने पा पकतायाच्या सामक्त खड़ाझाला के अच्चा का रचना क्ा। इसा समय इजाशअस्लाखां खा और मजा 2 (यू 756 आए वो प्चनारा मम्मी पक कला 22० कहानी 2! ४ है ३ नकल सखसागर' बम खही न सदासउन्जजाल वा पर्[चनाः अचि। काका का कहाना आर नसखसागर खड़ा- ३ का छल काया चे लल गए | राज़ा अधक्ष्ममासह् ओर शित्रप्रमाद भसितारे ह््दि ने अपन जा अिवकरकगाकनमपानभके समर, के प्रणग करन >रप न फनअ 'छ “-ैपनेशनप्अयान- स्‍समलननपानकनम..3. सनक -जनण-मकण-+-मनपलपनाकमम-फक एक अब मम्मकमइन्क मा, धागे मिला अैकमव्मकत्थबत्क- २4 *-]१ ४; 49 [*| न: ३4 24 * "आम 2 ट्‌ा 59९० यु भ्न्‌ जज +4 $[ हट 4 | | [ ट्ज। सिलमाननभारयमलाबाए 4 आइमम मम दीन पे पमा ूह एन क्र जड़ाक. 4 कमान नमक. कमा अ....-क- आम. >यह ह इ बयान. गाय /€ सभाज 2 ७ए#आाओ क्रा अप से स्थामा सबासन्द सन्स्चनां और उनके ठदारा चलाश गए आयं-समाज क़ृः वेख मत्स्वप्ण कह हुआ उनन् द्वारा खडीचोली के परमार गोरे प्रचार मे वचद्ध वहवित लकी । गन हट दानसा वपा से सट़ी बोली का साहित्यिक रूप अपन ढग व विडनत क्ाता रहा हू आर कर्मी-की इसकी मेरठ-विजनौर ज्षेत्र की खोनी ६ हा श न || ैँ _बम्ण मनन, अयामन्‍्यहान्ना० पी यान पयान्माइ, कं रियल मी किक टन सा बन प्चता व हि. ०० कई केण3यण, दे आ।बचात मां हाद लगना हू, ।४7०*. । आ(दृदः निन्नत सहा आइ है, चन्व 2 कि नित्य जी न+ जे प्र ख ज> ब३०--तण 3 35 लि आतलप्धिद आ।ा दालचानल क्ष जया न अन्तर दी द्ांद्राजाना हे | १०००-१५०० | खड़ीवोली | प्रारभिक रूप (यत्र-तत्र पाए गए रूप) | ॑ १५००-१८०० | मध्यकालीन । (गद्य में यदा-कदा प्रयोग) । ]क्‍ १८००- आधुनिक (खड़ीबोली का युग) ८/५ खडीवोली के विविध रूपों के उदाहरण अन्यत्र दिए जा चुके है । इसमें संदेह नहीं कि इसका प्रयोग विविध वर्गो, स्थानों, परिस्थितियों के अनुसार अनेक प्रकार से किया जाता है । कै ८/४/१ (१) खड़ीबोली के ग्रामीण क्षेत्र के लोग आज तक इस वोली का प्रयोग अपने ढंग से करते है और उसे खड़ीवोली का ग्रामीण रूप कहा जा सकता है । ८/५/२ (२) हिंदी के साहित्यकारों द्वारा हिदी का जो रूप प्रयुक्त होता है उसमे संस्कृत के शब्द, समस्तपद, बड़े वाक्य, गुफन आदि पाए जाते है। एक युग था जब प्रयाग और लखनऊ के हिन्दी साहित्यकारों द्वारा प्रयुक्त गद्य की भी तुलना की जाती थी । वह समय चला गया है और अब प्रयाग, लखनऊ, दिल्ली आ्रादि स्थानों मे साहित्यकारों की भाषा में बहुत कुछ समानता ग्राती जा रही है । साहित्यिक भाषा का ज्षेत्र बहुत वढ गया है। आज तो देश के प्रत्येक भाग में हिदी-साहित्य का निर्माण हो रहा है, चाहे वह मद्रास हो या कलकत्ता, श्रीनगर हो या त्रिवेन्द्रम सवेत्र हिंदी की रचनाएँ प्रस्तुत की जा रही है । यदि इसे सीमित किया जाय तो इधर राजस्थान, उधर बिहार, उत्तर मे पंजाब और दक्षिण मे म.प्र. इसकी सीमाएँ वताई जा सकती है श्लौर कहा जा सकता है कि प्रमुख रूप में यहां. हिंदी की ही रचनाएं प्रस्तुत की जाती है, परन्तु यदि वास्तविकता को देखा जाए तो देश के प्रायः सभी प्रान्तों मे हिंदी का साहित्य प्रस्तुत किया जा रहा है और काफी मात्रा में | कुछ साहित्य तो वास्तव में उच्च कोटि का होता है । ८/५/२ (३) खड़ीबोली का एक साहित्यिक रूप उद्दू भी है, इसका व्यवहार पाकिस्तान, उत्तर भारत के मुसलमानों, पुराने कायस्थों आदि में पाया 5 धर ४ मा ८ जे | न ॥। * बप ! 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( १ [१६ स्क 8७ दा «७. ६4.०० हि 4 न प्र ई दे बा रु जा ! थाई हे प्र १ हे इप रे 3 ि ए च्‌ अं क्न् ४७ ३ डे ) | ॥। ४ ठ है न्श ही धर | प्पै +हीन बज | >> । हा रे एं ... [॥७ १७१ छ्व |* फ्पा ६00 हक 50 आए दी ७ दि करा हिक्र कि हि # (४ /क णि फ््डा 5. छी कि की 9 व! हि बा] आई, कदम, हा च्न्ण्कः +६६५०५॥ | ३ प्रकार से ढाल कर अनेक नाम देने का प्रयास किया गया, और यह सब शब्दों के श्राधार पर हुआ, व्याकरण की हृष्टि से बहुत-कुछ अशों में एकरूपता पाई जाएगी । संस्कृत तथा फारसी के उपसर्ग-प्रत्यय आदि कुछ विभेद करते अवश्य प्रतीत होते है । पर इसमें संदेह नहीं कि इन अनेक रूपों के कारण हिंदी का क्षेत्र बहुत व्यापक वन गया । ८/५/६ (६) हिंदी तथा उद्दं के साथ एक नाम और चलता है--हिन्दु- स्तानी' । यह नाम वहुत व्यापक है। एक समय था जब हिन्दुस्तानी का भ्र्थ उद्दू होता था | फिर देखा गया कि जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्द अधिक हों वह हिंदी, तुर्की-फारसी-भ्ररवी के श्रधिक हों तो उदूं, इन सबको साथ लेकर भ्रग्र जी के शब्द भी हों तो हिंदुस्तानी । यह बोल-चाल की भाषा समभिए और इसमें सब प्रकार के शब्द देखे जा सकते हैं। हिंदुस्तानी साहित्य के उपयुक्त नहीं समभी गई । विद्वानों ने लिखा--हिंदुस्तानी को साहित्य के आसन पर विराजने की चेष्टा करना हिंदी और उठ दोनों के लिए अनिष्टकारक है । इसके प्रचार से हिंदी-उद दोनों की परम्परा नष्ट हो जायगी और दोनों अपश्रष्ट होकर ऐसी स्थिति उत्पन्न करेंगी कि भारतीय भाषाओञ्रों के इतिहास की परम्परा में उथल- पुथल मचा देंगी । वेसे यह चेष्ठा भी अवश्य हुई कि इस प्रकार की बोली में भी साहित्य लिखा जाए । आजकल यह नाम अधिक प्रचलित नहीं है कभी-कभी यह जरूर सुना जाता है--हिंदी में नहीं हिढुस्तानी में, जिसका सामान्य श्रर्थ यही होता है कि आसान हिंदी मे कहता जाए । प्रचलित नाम दो ही हैं हिंदी और उद्‌ । दोनों के अपने-अपने न्षेत्र हैं, अपनी-अपनी साहित्यिक परम्पराएँ बन श्ुकी हैं--दोनों ही संविधान-स्वीकृत भाषाएँ है--पर हिंदी का दर्जा उद्द की अपेक्षा अ्रधिक विस्तृत है । हिंदी का संबंध संपूर्ण भारत राष्ट्र से है । उद के द्वारा हिंदी का प्रचार हुआ इस बात में काफी तथ्य है। मुसलमान प्रायः उद्द का प्रयोग करते हैं, उद के प्रयोग से हिंदी का प्रचार स्वतः होता है क्योंकि व्याकरणिक रूप प्रायः एक से ही हैं । हिंदुस्तानी का उदय के अरे में प्रयोग तो बिल्कुल समाप्त हो गया है । आज यदि कोई 'हिंदुस्तानी' का नाम लेता भी है तो उसका अर्थ सरल हिंदी' ही लिया जाता है--साहित्य-रचना की बात समाप्त हो छ्लुकी है । हिंदुस्तानी बोली का अब तो ऐतिहासिक महत्त्व ही मालुम होता है। एक समय ऐसा भी आया था जब हिंदुस्तानी एक भाषा थी और इसके दो रूप थे, दो लिपियाँ थीं कहीं-कहीं यह भी प्रयोग हुआ कि हिंदी-उदूं दोनों को मिलाकर एक भाषा हिंदुस्तानी हो और उसे दो लिपियों में लिखा जाय । कुछ प्रकाशन भी हुए, पाख्य पुस्तकें भी प्रस्तुत हुई किन्तु आग्रे नहीं चल सका और 'हिंदी', 'उद्ृ ' दोनों भेद जैसे के तैसे रहे | आजकल दोनों में दूरी बढ़ती जा रही है और यह एक विचारणीय प्रश्न है कि यह प्रवृति कहां तक उपयोगी है । घ्थ हिंदी रेल्ता (रिल्ती) द्विदस्तानी | ; यु <€- (हिंदा उद्द “४ हि इस विवरण हिंदी की परिभाया देना मी उचित प्रतीत /5/७ इस वंवरण के उपरास्त हुडा का पारञापा दना भा उचित प्रतात दाता ह-++- न >ैरमननरमकन्यकन»जन सम... थे "या मम५म+मक संशापीय 4० 5 48 रल 2035 चल जे ([ ) संझार के साधा-सम्‌ह्ठा मे नारतन्यूनापाव पासइ्वार क भारतं-इराना उप- परिवार में भारतीय-आर्य भाषा वर्ग की आधरनिक भापाश्रों एक भापा हूँ ( |] योगात्मक दर्ग में विभक्ति-प्रवान नापातों के अतः वहिम खी तथा कं ल्सिकर ब्रादा 238. छ्क्‌ आप काना. 33... व्यवाहत वरब्मानद्रया वादा एक आजा हू । मनन हक [अल ख््ास््द्ललर 9) पच्चिमी हिंदी के खड़ीजोली रूप का विस्तृत एवं विकसित रूप है ( ९) जमाया, अववयी, विहारी, राजस्थानी आदि भाषा-प्रदेशों की संविधान (5) भारतन्यूरोपीय परिवार (0) योगात्नक (7) पश्चिमी हिंदी जल नमक । । | | है ही नारत-+रानी उपपरिदार विभक्ति प्रधाना खड़ीबोली || रस, मल अब रत | [ । $ मम की धारक, ४ पक ् अर 2 सर आय पे व ॑जकी। जन पयकमाराम>याकन. “जा डकी 2 आधावक चारताय दभ्ायनमा५। अतम री! ्जमकी. ॥ जा ६5०७ 72४ है £:४ हु हद व्यवहित (हिंदी) रण स्प अवधी पद भारत-यूरोपीय परिवार॑ भारत-ईरानी उपपरिवार आधुनिक भारतीय आये- भाषा वर्ग योगात्मक व्यवहित रि डिदी खड़ीबोर्ल हिंदी भ्रतम सी 7 आकृति -- हि -- उत्पत्ति खड़ीवोली*पश्चिमी हि विभक्ति | क्षेत्र है मी खम राजस्थानी ब्रज. शअ्रवधी विहारी "--+-+ वांगह वघेली -+- राजस्थान कन्नौजी छत्तीसगढ़ी विहार खड़ीबोली वु देली आय का अतआर बाय दिल्‍ली, उत्तर प्रदेश, हरियाना ८/५/८ हिंदी-उद्‌ के श्रतिरिक्त हिंदी के अनेक रूप देखे जा सकते है । वेसे तो शैली की दृष्टि से भापा के इतने रूप हो सकते हैं जितने उस भाषा के बोलने वाले, परन्तु नीचे लिखे कुछ रूप अ्रधिक विभिन्नता रखते है-- (१) आधुनिक कविता में प्रयुक्त भाषा--नई कविता, श्रकविता आदि को सम्मिलित करते हुए । (२) साहित्यकारों की भाषा--श्रालोचनात्मक, शोध-प्रबंधों आ्रादि में प्रयुक्त भाषा सहित । (३) कथा-साहित्य की भाषा--पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रकाशित कहानी और उपन्यासों की भाषा को भी इसके श्रन्तर्गंत रखते हुए । (४) सिनेमा की भापा--रजतपट पर जो भाषा सुनी जाती है, श्रर्थात्‌ जिसमें आजकल के सिने-कलाकार विचाराभिव्यक्ति करते हैं । (५) बोल-चाल को भापा--विभिन्न वर्गों की विभिन्न भाषाओं को भी इसी में शामिल करना चाहिए । श्रौर अ्रव दो प्रश्न--- (१) खड़ीबोली हिंदी का विकास बताइए । (२) हिंदी की परिभाषा लिखिए और उसका स्वरूप बताइए । 3 >+-- ल्‍ (३ दे किक ०» ७) हिदो का टाब्द-समुदाय जि भाषा की न्यूनतम इकाई वाक्य होती है । वाक्य के बिना विचार- प्रकाशन की क्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती । हम कितने ही छोटे रूप में क्‍यों न बोलें, वाक्य ही बोलते हैँ । वाक्यों का निर्माण एक या अधिक पदों से होता है । पदों को बनाने के लिए मूल शब्दों की ग्रावजश्यकता होती है--प्रर्ध-तत््व और संबंध-तत्व को मिलाकर पद बनाते हैं और उसका वाक्य में प्रयोग कर विचारा- भिव्यक्ति की जाती है। पद के पाँच भेद माने गए हैं--( १) संज्ञा, (२) सर्व- नाम, (३) विभेषण, (४) क्रिया और (५) अव्यय । अब्यय को कुछ लोग (१) क्रिया-विशभेषण, (२) संबंब-वाचक, (३) समृच्चय-वोवक, तथा (४) विस्मयादि बोबक के रूप में देखते हैँ | इन शब्दों के मूल रूप अपना इतिहास रखते हैं । कोई जब्द कहां से किस प्रकार आता है यह अपन में एक महत्त्वपूर्ण अव्ययन है और बहुत ही रोचक अव्ययन हैँ। पत्र की वात पहले ही बताई जा चुकी है | एक बड़ी विचित्र वात यह है कि कौनसा अब्द कहां से झ्ाया और उसकी विभिन्न भ्रवस्थाए क्या रहीं--इस वात का पता लगाना कठिन हैँ । यह तो एक मानी हुई वात है कि प्रत्यक्ष माया विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जब्दों की खिचड़ी होती हैं। आधुनिक युग में बह खिचड़ी और भी अधिक विविबतापूर्णा हो चली है । आवागमन के साथनों में विकास के साथ अनेक खोलो से शब्द आने की गति तीब्रतर हो जाती है । जहा तक हिंदी का प्रज्न हैं उसमें तो आवागमन का क्रम इतना अधिक रहा कि गा ने जान किन-किन स्थानों, वर्गों और भापाश्रों केश शब्द फक। इसमे ग्रहणा कर लिए गए व 5 क्यो सर्वदा के स्‍भी> मे ॥ -3.45...0.. काल से बात गए हू थट्ट सवदा त्रलता रहता हू । वादक काल स पहल कावयाततों ९ प्रकार अनननसमिलक लाग एक पर इसक्क ्क बाद कि कितने न कार के लाग भारत में कराए, यद्ध ह्कथा /०॥" मालुम नहीं लाता जो जाना जा सकता ह। आने वाला अपन साथ अपनी भाषा लाता है | | $ तक हि प्र्ज लि | | है । साथ ही वह जिस स्थान पर पहुचता हु वहाँ भी कोई न कोई भाषा अवश्य होती है. उसका जशब्द-समुदाय होता हू। भारत में शक, हण सिधिबन, पठान, तुक, मुगल, अग्नज, फक्रंच आदि लोग आए । वे अपने साथ ##. ध्छ सका तक >.. बूथ अपनी भाषाएं लाए, जब्द-मंदार लाए और उनके बहुत से जत्द यहां के जत्द आज भसडार मे ले लए गए सार समय वानन पर वे एस घलमिल गए कि उनका विदर्शापन हठल्कूल समाल हा गया | बटन, कमाज, कमरा, काट, पंसिल, जल्दी, ! अयक आ कपल अत * <4:अअल अहम (5 मम रवाना आदि ला ०8 कक किताब, बाल्दी, खोतल, फिर, लेकिन, रवाना आदि के वारे में हमारा यह व्यान धन पररनयाापकन शब्द अपने ढेंग से उन भाषाओं में आए हैं और वहां से कुछ आवश्यक शब्दों को (१) [ 3) तत्मसम--जस्तु, प्रकृति, जीत्र, वेग (7) नझ्ूवब-आज, कान, नाक, तेरह (9) अद्ध तत्मम--कान्हा, लगन (२) मव्यबुगीन--क्लाँटा, उठा, (हसी-उट्ठा ), फूडा, घोट़ा. ह. (३) आधुनिक-- 3) वगला--स्ठेश, गमछा, उपन्यास, गरठप ॥) गुगराती--गरवा, हडताल ॥7) मराठी-लागयू, चालू 30) पंजावी--मग्रेतर रा आम सर » / प्रत्यक कोटि न न्‍्प >> अम्ल आारशणा बस 5 ' का अर्थ है ९ १ कु स्‍ 4 त्यक काट के जब्दा के कुछ कारण रह हू । त्त्तम का#इ हे “उसी के समान अर्थात संस्कृत के शब्दों का जैसा का तैसा रूप । इन शब्दो के प्रयुक्त करने में कहा जाना है कि पाहित्य प्रदर्शन की आकाक्षा निहित रहती है, इसीलिए जिसे साहित्यिक हिंदी कहा जाता है उसमें संस्द्वेत के विशुद्ध शब्द अधिक संख्या मे पाये जाते है । तख़ूव शब्द मध्यकालीन भारतीय आरये-भाषाओं में होकर हिंदी तक पहुंचे हैं, इसी कारण उनका रूप परिवर्तित हो गया हैं। इनमें से अधिकाज का सवध सस्क्ृत शब्दी से जोश जा सकता है। इनकी सस्या बहुत अधिक होती है । तम्भव का अर्थ होता है उससे उत्पन्न! और वैयाकरणों की परिभाषा के अनुसार ये शब्द संस्कृत से उत्पन्न माने जाते हैं । जो सस्कृत शब्द आधुनिक काल में विक्ञत हुए है, वे श्रद्ध तत्सम' कहलाते हे क्योकि उनकी बीच को कड़ियां नहीं मिलतों । 'मध्ययूगीन' वे जब्द हें जो पाली, प्राकह्ृृत आदि मे श्रयुक्त होते थे जो वही तक रह गए और अब उनका प्रयोग उसी रूप में यदा-कदा किया जाता है। आधुनिक का अर्थ स्पप्ट हैं कि इनका प्रयोग आजकल किया जाता है करिस्तु थे शब्द हिंदी में विकसित नहीं हुए, अन्य आधुनिक भाषाओं मे हुए और वहा से आवश्यकतानुसार हिंदी में ले लिए गए । ६/२ भारत में भारतीय आर्य-भाषाओं के अतिरिक्त कुछ ओर भाषाएं भी बोली जाती है जिन्हे अनाय कहा जा सकता हे । इसका अन्य जाव्दिक अर्थ न लेकर केवल इतना ही समझना चाहिए कि जो भाषाएँ भारतीय तो हें किन्तु जिनका संवध भारत की श्रार्य-भाषाओं से नही है । यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका ६१ है कि भारत में भारतीय आरय-भाषाओ्रं के अतिरिक्त कई अच्य वर्गो की भाषाएं भी बोली जाती है जैसे द्रविड़, आग्तेय । इन शब्दों की संख्या बहुत कम है । कुछ देखिए:--- द्रविड़ भाषाओं से --- पिल्‍ल (पिल्ले से) कोल--हँडिया, कोड़ी तिव्बत--वर्मी-लु गी इन शब्दों को कुछ लोग 'देशी' भी कहते है क्योंकि ये इस देश के ही शब्द है और 'विदेशी' से इन शब्दों का परथकत्व दिखाया जा सकता है । वेसे देशी शब्द तो आर्य-भाषाओं के भी हुए, पर इसका प्रयोग भारतीय अनाय॑-भाषाश्रों के लिए होता है । मूद्ध न्‍्य वर्ण से युक्त अनेक शब्द द्रविड़ भाषाओं के माध्यम से आए हुए बताए जाते है । हिंदी (या हिन्दुस्तानी) में इन शब्दों का प्रयोग तो सिगापुर के भारतीयों में देखा जाता है जहां इन तीनों भाषाओं के बोलने वाले लोग एक दूसरे से मिलते है । ६/४ भारतीय अनाय-भाषाओ्रो के कही अधिक शब्द विदेशी भाषाओं के है । इन विदेशी भाषाश्रों के तीन वर्ग हो सकते हैः--- (१) मुसलमानो के प्रभाव से --फारसी, अ्ररवी, तुर्की श्रादि (२) अग्न॑जों आदि यूरोपियनों के प्रभाव से-अ्र ग्रे जी, फ्रच, पुर्तंगाली ग्रादि (२) इनके अतिरिक्त अन्य विदेशियों के प्रभाव से--जापानी, चीनी मलय आदि । भारतवर्ष मे १०००ई० के लगभग से ही इस्लाम धर्म को मानने वाले तुक आ्रादि आते रहे | पहले गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद तथा लोदी वंशों के पठानो ने यहा शासन किया और इसके बाद मुगल आए | यह शासन भी काफो दिनो तक चला। अ्रग्न॑जों का शासन तो अभी कुछ वर्षो पहले ही समाप्त हुआ है | अ्रग्न॑ जो के साथ योरुप के अ्रन्य देशो के लोग भी झ्राए थे परन्तु राज्य अग्र जो का ही जमा । अग्र॑ जो के राज्य के साथ पुतंगाली तथा फ्रासिसी छोटे उपनिवेश भी रहे परन्तु श्रव सव समाप्त हो गए है । इन सभी लोगों के यहा आने से कुछ शब्द भारतीय भाषा में अवश्य प्रचलित हो गए। हिंदी का प्रादुभाव भी लगभग उसी समय से माना जाता हु जब विदेशी आक्रमण शुरू हुए । श्रतः हिंदी के प्रारभिक काल से ही विदेशी शब्द ग्रहण किए जाने लगे प्रौर चन्द, सूर, तुलसी आदि के काव्य में भी विदेणी भाषाश्रों के काफी शब्द मिलते है । >> _-->-ज अजब... नर ६२ बहुत समय तक फारसी दरबारी भाषा रही, अ्रतः फारसी के माध्यम से अरबी, तुर्की आदि के शब्द भी प्रच्चुर मात्रा मे आगए । ६/४/१ मुसलमान शासक चाहे किसी भी वर्ग के क्यो न रहे हो, उनके दरवार की भाषा फारसी ही रही । काफी समय तक और किसी सीमा तक अब भी हिंद़्ओं में भी फारसी भाषा के अच्छे ज्ञाता हुए । अरबी, तुर्की आदि के जो भी शब्द आए वे फारसी के माध्यम से ही आए । कुछ उदाहरण दिए जा रहे है । फारसी---चादर, पेजामा, जुरमाना, गोश्त, सौदागर, हमेशा ग्ररबी--अदालत, कमाल, तहसील, हाकिम तुकीौ--गलीचा, चकमक, बीवी, लाश, सौगात पश्तो--तपास (खोज) रोहिला (रोह-पहाड़ से) चटर्जी ने इन शब्दों को कई कोटियों में रखा है परत्तु यह वात मानली गई है कि इन सभी भाषाओं के शब्द फारसी के माध्यम से ही भारतीय भाषाश्रों में आए है | कुछ कोटियॉ--- १) राजकाज, शिकार, युद्ध श्रादि के शब्द-अ्रमीर, शिकार, तलवार ) कानून के शब्द--अदालत, इजलास, जुरमाना ३) धर्म-संबवंधी शब्द--पीर, औलिया, मजह॒व, परहेज ) सस्क्ृति, कला आदि से संबधित--तहजीब, महल, शौक, शायर, जाहिल (५) व्यापार--सौदागर, सूद, खरीद, दुकान, तिजारत (६) सामान्य जीवन-संबंधी--हफ्ता, किस्सा, मतलब, अ्रफेस्तोस ६ /४/२ भारत में यूरोपियनों का आता लगभग १५०० ई« से प्रारंभ हुआा, परन्तु भाषिकी संपर्क काफी पीछे हुआ । पहले जो यूरोपियन आते थे वे फारसी सीख कर राजदरबार में अपना काम चलाते थे। कुछ शब्द अवश्य प्रचलित होगए हो परन्तु यूरोपियत भाषा श्रग्न॑जी का प्रचलन तो अभी से शुरू हुआ जब भारत मे अर ग्र जी राज्य स्थापित होना शुरू हुआ । अर ग्र जों के साथ और वेशो के लोग भी आए परन्तु उनको भाषाश्रों के इतने शब्द नही चल सके जितने श्र ग्रेजी भाषा के। धीरेन्द्र वर्मा ने अ्रग्नेजी के प्रचलित शब्दों की श्रकारादि क्रम से एक सूची दी है । यहा अर ग्र जी आदि भाषाओ्रो के कुछ प्रचलित शब्द दिए जा रहे है+< प्रग्न जी--स्टूल, कोट, चॉक, जेल, टीन, निव, मशीन, राशन, वाइल पुतंगाली--अभ्रचार, अलमारी, गोभी, चाबी, बाल्टी, बोतल, संतरा न फ्रांसिसी---कूपन, कारतूस, श्र ग्रं ज इत्च--- तुझुष, वम और भी बूरोपियन भाषाओ्रों के जब्द आए होंगे परल्तु चू कि वे अ ग्रे जी के माध्यम से आए हैं अतः श्र ग्रे जी के ही शब्द मिने जाते हैं | ६ /४/२ इन शब्दों के अतिरिक्त अन्य भाषाओ्रों के मब्द भी आ ही गए हैं । इसका कारगा पारस्यरिक विचार-विनिमय तथा व्यापारिक आदान-प्रदान है । इन दिनों तो आदान-प्रदाव वहत ही वढ़ रहा है और अधिकाधिक शब्द आ सकते हैं। नाथ ही एक विचारबारा यह भी है कि यथासंभव संस्कृत के शब्द-मंडार का उपयोग करते हए नवीन शब्दों की रचना की जाए पर इस बात को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता कि अति प्रचलित विदेशी शब्दों को लेना ही पड़ गा हाँ, भाषा विशेष की रूप और ध्वनि प्रदृत्ति के अनुकुल उनकी किचित्‌ परिवर्तित करना आवश्यक हा सकता ह । जायानी--हारा-की री मलय--सावू चीनी---चाय पीहवीयन---कुनेन ९/५ इस प्रकार हिंदी का शब्द-भंडार देशी, विदेशी, आये, श्रतार्य आदि शब्दों से मिलकर वना है । हम जिन शब्दों को भारतीय आर्य-भाषाओं के मानते हैं अथवा अनाय मानते है उनका भी उद्गम ने जाने कहां से हुआ हो । यूरोपियन भाषाओं के मूल-स्थानों का पता लगाना वास्तव में वहुत कठिन होता है । हमने तो केवल इसी वात को माना है कि जो शब्द जिस भाषा में चल रहा है वह उसी का है । कुछ विद्वानों ने अनुमान लगाया है और उनकी मान्यता हिंदी शब्दों के प्रतिशत बारे में इस प्रकार है-- तत्सम शब्द 4 ४*७० ३५००० है कुछ तड्व, अद्ध तत्मम ५०००० ५९००० | विदा फारनी आदि शद्ब॒_ ४०० ग्रग्न जी आदि 9५० अन्य 'पूठ 2 00:0० इसका अ्रभिधाय यह हुआ कि भारतीय आयं-भाषात्रों से आए हुए शब्द लगभग ६४ प्रतिजत है, वाकी ६ प्रतिशत में और जब्द हैं ॥ (इसका प्रयोग आप ६४ भी करे --अपनी पाठ्य पुस्तक से कोई कहानी ले ले और सम्पूर्ण शब्दों को गिन डाले, लेकिन गिनते समय तत्सम, तझ्भव, विदेशी श्रादि की गिनती भी करते जाये । फिर देखें कि प्रतिशत क्‍या श्राता है । जसे-- कहानी के संपूर्णा शब्द तत्सम तडद्जभव आदि विदेशी ३६०० १५००. १६०० २०० इस हिसाव से प्रतिशत. ४१६ धर ५'६ प्रश्न तो यही होगा-- हिंदी शब्द-समूह के विभिन्न स्रोत बताइए झ्रौर उपयुक्त उदाहरण दीजिए । १० हिन्दी- रचना । ०-० 5-3० पिया 3>>- >> न वन रमन++ लय. 'एम्थइएसशप्पाथा पाप फकक १०/१ भाषा की रचना शब्द-समुदाय पर निर्भर होती है, परस्तु शब्दों का प्रयोग करते समय उनका संस्कार करना पदता है, और यह संस्कार उस संबंध पर आश्रित होता हे जो एक शब्द का दूसरे शब्द से तथा पूरे वाक्य से होता है । क्रिसी भी वाक्य में शब्दों के थे संत्रंव देखे जा सकते है | राम की पुस्तक खो गई ।' यहां राम ओर प्रस्तकं एक दूसरे से संबंधित है; (पुस्तक और खो गई का संबंध है, तथा पूरे वाक्य मे राम पुस्तक खो गई के अपने-अपने स्थान और संबंध हूँ । संबंध का यह कार्य भाषा विशेष की प्रकृति के अनुरूप होता है | यदि हिंदी में कर्ता, कम ओर क्रिया का संबंध १, २, ४ माना जाय तोञअग्रजीमेयह क्रम १, ३, २ होगा । हिंदी में क्रिया पद अ्रन में आता है और श्रग्रेजी भे कर्ता एवं कर्म के वीच में । राम घर जाता है 4 २ 5 सिकव। ९065 7076 ५ ट्‌ न्ठु घ 7 रचना के उपयक्त जब्द का सस्कार कर उस 'पद' बनाया जाता हैं ! ऐसा करने में कभी कुछ बढ़ाते हे, कमी घबटाते हे, कभी परिवर्तित करते हैं ४ खाना ज़िया के कुछ नप देखिए--- बढ़ाना) खाता है--मुझे तो खाना है तम खाद्ों चाहे न खात्ो । टाना) ला >चयहले खा, फिर जा । पुर्वितित) खाग्गा--वह पीछे खाएगा । छ नहीं) खाना --मु>*; तो नहीं खाना । () कह: आदि कह. ( ( टुस बात जो हस प्रक्ञार भी कह सकते है कि अर्थलनन्‍्व में संत्रंध-तत्व वा योग +, --७ “७, अथवा 0 हो सकता है । जब किसी शब्द को संबंध-सतत्त्व ६६ से युक्त कर दिया जाता है तभी वह वाक्य में रखने योग्य होता है। साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि तैयार किए हुए पद का वाक्य में कहाँ स्थान है। कुछ भाषाए' तो ऐसी होती हैं कि स्थात का ध्यानन रखकर भी प्रयोग किया जा सकता है जैसे संस्कृत भाषा--रामस्य पुस्तकमिदम, इदम्‌ पुस्तकम्‌ रामस्य, पुस्तकमिदम्‌ रामस्य आदि---ये भाषाएं संश्लिष्ठट होती हैं अर्थात्‌ शब्द | का संबंध-तत्त्व उसके साथ-साथ चलता है, दूर नहीं किया जा सकता, परन्तु हिन्दी में बात दूसरी है--संवंध-तत्त्व अलग से जोड़ा जाता है तथा कहीं-कहीं स्थान विशेष से उपलब्ध होता है--- राम ने रावश मारा ('रावण' को उसके स्थान से 'कर्म' का रूप मिल रहा है) रावण ने राम मारा (यहाँ स्थान बदलने से ही 'राम' को 'कर्म' का रूप मिल गया) पर अथे का अनर्थ हो गया । हिंदी में शब्दों का स्थान बहुत कुछ अर्थ रखता है। संक्तेप में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक भाषा में शब्दों के पद बनाने तथा वाक्य में उनकी स्थापना उस भापा विशेष की प्रकृति के अनुरूप होता है, पर इसमें सन्देह नहीं कि प्रयोग करते समय हमें रचता के कुछ नियमों का घ्यात अवश्य रखता पड़ता है । १०/१/९ पद को हम दो भागों में बांट सकते हैं-- पद > ग्रथ-तत्त्व + संबंध-तत्त्व (+, “+८७, 0) इन दोनों में से प्रत्येक को एक पदग्नाम अर्थात्‌ ॥0ए॥०76 कहा जाता है। भाषा-शास्त्र में पद के दोनों भाग समान महत्त्व के होते हैं अतः दोनों की संज्ञा एक ही है। संबंध-तत्त्व को प्रगट करने की अनेक क्रियाए होती हैं, जे से-- ह १, संधियों के द्वारा बनाया गया रूप -- प्रत्येक २. सामासिक रूप -- माता-पिता ३. प्रत्यय द्वारा प्रतिपादित रूप “- सगक्त, विषमता ४, विभक्तियों के द्वारा उपलब्ध रूप “- राम का ५. आन्तरिक परिवतन के द्वारा प्राप्त रूप. --+ लोवण्य ६. शून्य रूप “-+ राम (कर्ता, कर्म आदि में ) कि इस स्थान पर हम इन पद्धतियों में से केवल कुछ क्रियात्रों का ही विवेचन करेंगे । /रि2 | नकनती ० द््यू जनम जी बी मिलकर कनोद पड जज 52.2 स्द हक भा सदा सकत टे ।ब्रग्न जा मे (3॥7804 मलकर कनोट हां जात हू करन नोट चंद, (79) मसल + वार 5 मृसलाधार ( ए) मनः + कामना ८ मनकामना | ४) ए (५३) तुम + को > तुम्हें अर को -ह) (ए) अन्न + दाता न्‌ का लोप) ($5) मार + डाला > माइदशला. [र अगले बरग्य में पन्वितित )। जैसे हिंदी में संधि कगे अपनी प्रतवृन्ति है उसी प्रकार हर भाषा में देनी जा >> ना ल्ल्फ्जज 355 बनते स्ड ओर लिखने >> ० कुछ लाग क्रांद हा बालन हू ओर (॥6 लिखते ट्ट कफ मे वंगा हक बा कट 2 न 'साामयाा-्माकु/+ याद, 3 हार हु इंकका, भाविक्त -> उरन्‍क कन्आ०ण व्याव ० प्र १०/२/४ वग्यों में संधि होना बहुत ही स्वाभाविक है और ध्यात देने पर व्यवस्थित है । हिंदी में संत्रि के नियम कंठिनता से वन पाते हैं, और अपवाद इतने व न कम नियमों हे ब्ग़ सन्त 2 अप लनन पाता। परन्त इसमें ् इतन देखे जाते हूँ कि नियमों का कोई महत्त्व हो नहीं रह पाता | परन्लु इस श्र: नए बल ! ८+मज साधि 3 यह देती संदेह नहीं कि संधि-क्रिया निरंतर होती रहती हुँ । एक सामान्य ज्रद्वात्त यह दल गई है कि जब दो शब्दों में ने पहल शब्द के अत में हत्व स्वर आता है ता वह नप्ट सा होता दिखाई देता हैं या तो उसे हम दीर्घ रूप में बोलें वा विजेष रूप ४ >59 >> अस्निन्व ्य जाता हम ठालत से इहर तब ता उनका दा्तल नहता हू अन्यया नप्द हा जाता ह। हग ठासत ना 'राम्स 25 ५ ज््क 4 गगन याद यांद नल 7“ न्यकुरफ- कद ता गम ३ राम हूं-र राम्का हि दामन | याद काथशिग गण करन ता ना (अर) सं. 425 (अ) श्र को, राम्‌ (भर) ने, बोल पाएगे। जब्द-निर्माण में संबि की अदृत्ति निरतर ब्दो किदी है/>-+ ह2- तीज जज ड; ००० सत्सम कक श्द्रा अभभअरनभर- कलम. उ् 2 2- शि देखा जाता है । हिंदा मे अ्रतनक शब्द सस्केत्त स ते रूप मे ले लए बएु हैं आर प्रत्येक, विद्यालय, विद्यार्थी, भावावेश, मनोकानना, पुतरावलोकन, अल्पाद्दार, दिनेश, रमेश, अत्याचार, महात्मा । ञ्तुं कि क्या हिन्दी का संवि-विवात भी हक | पर यह एक विचारणीय प्रश्न इनके अनुरूप हैं। विद्वानों का मत है कि हिंदी में प्रयुक्त तद्त् शब्दों को हिंदी की दृत्ति के अनुरूप माना जा सकता है। तत्सम ऋक्द तो एक अकार से उतार लिए गए झब्द हैं-यर पू्वेवर्ती नापाओं से लिए गए शब्द किस सीमा तक उद्यार-शब्द कहे जा सकते हैं । तथ्य तो यह हैं कि किसी भी भाषा मे अपना हैं इस प्रघन का उत्तर कठिन है, ने जाने कितने प्रकार के सम्सिश्वणों से भाषा का वर्तमान रूप बनता हैं। हिंदी भी इसका अपवाद नहीं हो सकती, और । इस नियमों को तियम न कह | £ 2८० संधि नियम द््सी प्रकार ल्ज्> हिंदी के संधि-नियम भी कुछ इसी प्रकार के कर उच्चान्य्त: -प्रदृत्ति कहना अधिक उपयुक्त हा /0 |! ५ ४ [७ हो 5 ॥/ए दि वि पट 0 व ट ,;-- न ता 0 है ५ फ़ ! अल दर | पट हफ ल्‍्र । ग | $ न्‍ै ५ 45 $ ए 7९४ ॥ ५ भर (ः 'ए ए झि - पर के 0 पि , 4१७ ११ | प्‌ बीच |, 9१ ५ ह रस ( शए 7 ञ्द के 7४ हे है! 97 .. जी ++ गए! ७ हा लए! फि 0००९९ ह ४ ही 5 7 ५५% लक, झा ५९ 5 ... तः |. भरा ए ४ # ५ /६५४ | कटियार बट | 42 १ किक ३ ध _्् ४ १९! हिल! ।५ गा कट पा (०! 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(7 $। हे तप बे ॥( भ्ते 3. है १६ दा हे रे ४४१ 0) 3ेपीः ४ (१ ,॥४" की) $ . ॥१॥ ५.० *ै क्ञ ५ १ |१॥ | ४3० ९ * कल मी ५ त्र्र्ड नीला + कमल 5 नीलकमल (आ-लभ्र) कती + अर भुरी 5 कनेगुरी (ई->प्र) १०/३/१/५ बहुत्नी हि--इस समास मे श्रन्य पद प्रधान होता हैं। दोनों या अधिक पदो को छोड़कर कोई अन्य पद ही लक्षित होता हे-- दशानन 5 (न दर्सा से कोई मतलब है ओर ते आन से-- समस्तपद का भ्रर्थ है दस हैं मुख जिसके-रावण ) नीलकठ & (नील और कठ' के श्रथों को छोडकर नीला है कठ जिसका--शिव अर्थ होता है) चक्रपाणि ८ (चक्र है पाणि में जिसके अर्थात्‌ विप्ण ) १०/३/१/६ अ्रव्ययोभाव--इसमे पहला पद अबव्यय होता है, कभी दोनों पद अव्यय होते है और कभी द्विरुक्त बब्दो के वीच में ही आदि झा जाते है-- ( 3) पहला पद अव्यय--अतिदिन, यथाशक्ति, (9) दोनों पद अव्यय (द्विरुक्ति)--धीरें-बीरे, घटाघठ, दिन-दिन, (।9) ही आदि का प्रयोग---मन ही मन, झाप ही आप । १०/३२/१/७ इस प्रकार समासो के सभी भेद पदों पर आधारित हे--- ह (१) दोनों पद प्रधान -झे द्रव. न माज्वाप (२) उत्तर पद प्रधाव -- हिग्रु. - नवग्रह कर्मधारय --- लेव्टग तत्युछुप. -- पन-घट (३) अन्य पद प्रधाव -- चद्रशेखर --- शिव चतुरानन -- ब्रह्मा (४) अव्यय पद --- एक या अधिक -- अ्रतिदिन घीरें-धीरे भाषा-शास्त्र की हप्टि से समास प्रकरण का इतना ही महत्त्व है कि पद-रचना मे इस सभी प्रकार की समास-श्रक्तियाश्नो का आश्रय आवश्यकतानुसार लिया जा सकता हैं । १०/३/२ प्रत्यय--प्रत्यय उस अक्षर या अक्षर-समूह को कहते है जो शब्द रचना के निमित्त शब्द के आगे लगाया जाता हैँ । इससे यदा-कंदा मूल शब्द के रूप में कुछ परिवर्तन भी हो जाता हैं। हिंदी मे सस्क्ृत के अनेक प्रत्यय आग हैं---कछ उसी रूप में हैं, कुछ में परिवर्तन हो गए है । यद्यपि हिदी मे प्रत्ययों की सस्या काफो है परन्तु हिंदी प्रत्यय प्रधान भाषा नही है, इस कोटि में तो समान श जज प्रत्ययां के न “ प्र ज्क के ५००० ४ रा ब्क्ड़ अिननलयम. प्पु भारत दि है जे की तर मे £ः ड् तक |. हि हू त+ 7 न > , प्‌ ७ खाक 7$ |] पे | घट की ः |] काका. वि एः (5 जा पर छः 5 [७3% 5ा ६ (वा <(-- हॉट 3च े ध दी >> ध्ट 5 भा टी >> छः (772 ॥; ४ : / 7: 7 (#9 ऐ पट : न्रीयय न, चाल ध्ञ ह (१ ५2 पु # | /४“”55 $ ह ४५ 7 उन्‍मा०_ कि न ह १ । हा मम रस ९ सु छः (5 कम 9 व जब. 7: न यः हे # १ -रूक पद: टॉस ढ़ पर | १९४ 5९5 न्ल्ड्ड नस. ्क ता ॥४७ हू प्र एः ॥9%* ठि की ॥ 7 भ्ट ट गे कि विश 5 ्् + 2 5 * ट प्‌ + है ही हि हल & छ | 7 ह ; ५ पट हि पेठ )- ० ही तह 5 ५ ४ कि ७४ कि ४ छ (| (ए पा छि क्र पि० ता # हि ज हि तय एक नञः 20 हक + हि ० के 5 ष्दू | किक ४६% है है ४९४ | हे (रा ्िं रन कि ब् उन १ ्य के री 6 ४2 कम 2 अल अि७बनमटी.. हु जे तः .. घट ०+ का ह ध्जी ज्ककन्‍न्‍्मलरर द् न | ९ दे (0 ५ [7 ता ।चु (हि (5 “ओह | गि ज्क कु न ऊ ३ ब्ध अं >> पपफ्ित तट | 2 > हि हि # | 3 हि 7 5 प्रि ५ टी पक पर [. १९ दा रा चि जा ओला “ली लिल लिजच कक अकन ६. 6+ प्ि 0 $ न । धागे | प्र [5 | सिका ५5 रा न अन्‍न्‍क- कि कममआअरगी. 7 7 ३ - ४ ( -“ ५ ला .. 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कुछ लोगो का मत हे कि यह लिपि नग्ररों से प्रचलित थी, कुछ इसे नागर ब्राह्मणों की लिपि मानते हे और कुछ लोग तो देवनागरी की उत्पत्ति तातन्रिक चिह्न देवनगर से प्रतिपादित करते है | कुछ भी हो इसका स्वरूप ईसा की दसवी शताब्दी मे बनने लगा था । वसे तो भाषा और लिपि दोनो परिवर्तित होते रहते है परन्तु लिपि का परिवतंन अपेक्षाकृत धीमा होता हे । फिर भी प्राचीन लिपियो को पढना एक विशेष प्रकार की कला हूं और बहुत से लोग बलवती इच्छा होने पर भी प्राचीन हस्तलिखित भ्रन्थों का आनन्द लेने से वचिंत रह जाते है। लिपि-चिह्नो मे परिवर्तत होने की क्रिया का भी वैज्ञानिक आधार बनाया गया है और व्यवहार को भी उसमे सम्मिलित किया गया हैं । यहा इसके विस्तार मे जाने की आवश्यकता नही परन्तु निश्चित रूप से लिपि में परिवर्तत की क्रिया अबाघ गति से चलती रहती है । नागरी का जो स्वरूप हमे इस समय मिलता हे वह आठ सो नौ सौ वे पुराना है । ११/५ किसी लिपि की उपयुक्तता इसमे हे कि वह किसी भाषा विशेष की समस्त ध्वनियों को ज्यो का त्यो अकित कर दे। ससार की अधिकाश लिपिया इस आदश तक नहीं पहुँचती । वेंसे ऐसी लिपि का प्राप्त करना तो बहुत कठिन है जिसमे विश्व की सभी भाषाओं के ध्वनिनसकेत प्राप्त हो सके। अंतर्राष्ट्रीय ध्वनि-वरणंमाला भी इस आदर्श तक नही पहुँच पाती । पर जहा तक हमारी भाषा का प्रश्न हे अथवा भारतवपं मे प्रचलित भाषाएं हूं, उनकी प्राय. सभी ध्वनिया नागरी लिपि द्वारा व्यक्त की जा सकती है। दक्षिण की कुछ ध्वनियो को लिपि- वद्ध करते मे अवश्य कठिनाई होती है । देवनागरी लिपि की यह विशेषता हे कि १६१० ११/५/५ ञ्न उनका कहना था कि स्व॒रों के विभिन्न रूप समाप्त कर दिए जांय और केवल 'ज' स्वर को वारहखड़ी से ही काम चलाया जाय । जैसे 'क' आदि व्यंजनों की वारह जड़ी है उत्ती प्रकार 'अ,' आ.' जि, अ्‌, आदि रखे जांय, इसी प्रकार 'ज' घ' छ आदि जो नप्राण घ्वनियां हैं अर्थात्‌ जिनमें 'ह' ध्वनि सुनाई देती है उन्हें पूर्व वर्ण में ह' मिलाकर लिखा जाय। व को कह' 'घ' को रह छ को जह का रूप दिया जाय । उन्होंने संपूर्ण वर्णामाला में २० वर्ण और १० मात्राएं रखने का सुझाव दिया था। राष्ट्रभापा प्रचारसमिति वर्षा के द्वारा प्रकाशित साहित्य में इसकी बनेक वातें मान ली गई । उत्तरप्रदेश की सरकार ने भी इस ओर प्रयत्न किए और आचार्य नरेद्धदेव के सभापतित्व में एक परिपद्‌ की स्थापना की । इनकी सिफारिस्यें में 'इ' की मात्रा को वैज्ञानिक रूप देना प्रमुख है। ध्वनि के अनुसार 'मात्रा' प्रमुख वे के वाद लगानी चाहिए । 'कि' में पहले मात्रा लिखी जाती है दाद में वर्ण; यह दोपपूर् हैं ।--मात्रा का स्थान बाद में होना चाहिए । इस परिषद्‌ का कहना था कि 'इ की मात्रा 'ई' की मात्रा के अनुत्तार वाद को ही लगाई जाए पर खड़ी पाई की लम्बाई को आवबा कर दिया जाय, की -हूप रखा जाय । इनमें वहुत कठिनाई हुईं और वालकों के लिए तो यह क्रिया नितान्त अव्यावहारिक थी । इसी प्रकार 'क्रम॑ को 'करम, 'स्कूल' को 'सूकूल आदि लिखने का परामर्ण दिया गया । इससे वर्णामाला की संख्या और भी बढ़ गई । सरकार ने इस लिपि को चलाने को चेप्टा भी की और राजकीय प्रकाशन प्रस्तुत किए, पर जेसे कालेलकर-नुवारों को जन-बल प्राप्त नहीं हुआ इस प्रकार उसी कमेटी के सुधार भी प्रचलित नहीं हो सके । ने. | कुछ ही दिनों पूर्व कई वर्ष विचार-विमर्श करने के उपरान्त भारत-सरकार द्वारा हिन्दी वर्णमाला का जो रूप स्वीकार किया गया है वह प्रायः वही है जो पीढ़ियो से प्रचलित है । दो चार अन्नरों की आक्वति में अन्तर अवश्य झा गया है । स्वर: जजआाइईंउऊऋल एऐजोजोज अ: ऋषा[क७ . पायक..भााइुक. परम. हम हि न १११ पफवभम यरलव | शाह ड्ढ्कछ _. _> 5 2090५ (खपत त्रल्ने! श्र्क्ऱ ५ रूस हे रे ३, ४, न ६, ७, 5, हि 9 8 को. (#% ) ख' में नीचे के दोनों हिस्सों को मिला दिया गया है। 'व, 'भ को धु डियों से शुरू किया गया है । ११/५/४ स्वीकृत लिपि के संबंध में कुछ स्पप्टीकरण भी दिए गए हैं परन्तु यहां विस्तार की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । इस स्थान पर तो इतना ही अभीष्ट था कि विद्यार्थियों को उस लिपि का कुछ नान हो जाय जिसका वे जीवन पर्य त प्रयोग करते रहेंगे । ११/६ लिपि का आविष्कार होने में न जाने कितना समय लगा होगा और इसके वर्तमान स्वरूप का विकास कितने स्तरों पर हुआ होगा परन्तु हमें तो एक ऐसा साधन मिल गया है जो हमारे विचारों को स्थायी वनाता है तथा अन्य व्यक्तियों के विचारों को भी हम जान सकते हैं। एक समय था जब विद्या सुन कर ही प्राप्त की जाती थी, पुस्तकों का अभाव था,गुहू की वाणी द्वारा श्रवरों- द्विय से हम जो ग्रहरा करते थे उसकी पुनरावृत्ति ही हमें विभिन्न जान-विज्ञान में दीक्षित करती थी । वेद का एक पर्यायवाची श्रति' भी है और यह शब्द वेद- ज्ञान की उसी क्रिया की ओर संकेत करता है। कुछ लोगो का यह भी मानना है कि विद्या कंठाग्र होनी चाहिए; जो बात पूछी जाय उसका तत्काल उत्तर देना चाहिए । आज के युग में यह वात संभव नहीं । आधुनिक युग मे तो हमें बरावर पुस्तकों को देखना पडता है, अपने विचारों को लिखकर रखना पड़ता है और इस प्रकार लिपि का उपयोग प्रायः सभी अवस्थाशं में करना पड़ता है । पुस्तकालय हमारी शिक्षा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अ्रंग है । देश-विदेश के विविध ग्रन्थों हारा उपाजित ज्ञान ही हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है इस सम्पूर्ण सामग्री की प्राप्ति (लिपि! नामक कला द्वारा ही संभव है । ११/३ हमारे देश में अति प्रचलित देवनागरी लिपि संस्कृत का सम्पूर्ण वाहः - मय तो संचित किय्रे हुए है ही, साथ ही हिन्दी, मराठी आदि स्वीकृत भाषाएं भी इसी लिपि में लिखी जाती है। विवान के अनुसार भी इस लिपि को गौरवमय स्थान प्राप्त है । देश और विदेश के अनेक ग्रन्थों के अनुवाद देवनागरी लिपि में अस्तुत किए जा रहे है । इस लिपि को जानकर आपको भी अपरिमित ज्ञान की

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